क्या सरनेम हटा लेने से सिविल सेवा के इंटरव्यू में दलितों से भेदभाव रुक जाएगा
सिविल सेवा और नौकरियों की अन्य परीक्षा में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव को रोकने के लिए क्या दलित अभ्यर्थियों के नाम से सरनेम हटा लेना ही काफी रहेगा.
भारतीय समाज में दलित माने जाने वाले लोगों के साथ भेदभाव कोई नई बात नहीं है. दलितों के साथ भेदभाव उनके पैदा होते ही शुरू हो जाता है. और उनके मरने के बाद तक जारी रहता है. आप देश के किसी भी राज्य में किसी भी भाषा का कोई भी अखबार या पत्रिका उठा लीजिए, उसमें दलितों के साथ भेदभाव या उनके उत्पीड़न की खबर जरूर मिलेगी. नौकरियों में दलितों के साथ होने वाला भेदभाव, उनके साथ होने वाले अन्याय का एक प्रकार है. लेकिन अब इसे खत्म करने के प्रयास किए जा रहे हैं.

दरअसल केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने दलित इंडियन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (डिक्की) को समाज में दलितों की स्थिति का मूल्यांकन करने की जिम्मेदारी सौंपी है.
दलितों का प्रतिनिधित्व
डिक्की ने अपने अध्ययन के बाद बताया है कि सरकारी नौकरियां मिलने में दलितों के साथ किस तरह का और कितना भेदभाव होता है. डिक्की की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि सिविल सेवा की परीक्षा में शामिल होने वाले अभ्यर्थियों के उपनाम छुपा दिए जाएं तो उनको बराबरी का मौका मिल सकता है. उपनाम छुपाने की बात इसलिए की गई है क्योंकि 90 फीसदी भारतीय नाम के उपनाम से संबंधित व्यक्ति की जाति का पता चल जाता है. समिति का कहना है कि यदि उपनाम छुपा दिए जाएं तो अधिक से अधिक दलितों को नौकरी मिलेगी.
डिक्की के शोध विभाग के पीएसएन मूर्ति ने एक हिंदी अखबार को बताया है कि इस रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया जा रहा है. रिपोर्ट के पूरा होने पर उसे सरकार को सौंपा जाएगा. उनके मुताबिक रिपोर्ट को राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग को भी सौंपा जाएगा.
सरनेम या उपनाम छिपा लेने से दलितों को सरकारी नौकरियों लेने में कितनी मदद मिलेगी, 'एशियाविल हिंदी' ने यह सवाल पूछा दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय की लॉ फैकल्टी के पूर्व डीन और विभागाध्यक्ष प्रोफेसर रामनरेश चौधरी से. इस सवाल पर प्रोफेसर चौधरी कहते हैं, ''यह कदम बिल्कुल उठाया जाना चाहिए. पक्षपात सवर्ण वर्ग के लोगों का जन्मजात चरित्र है. वो पक्षपात करते हैं, न्याय नहीं. इसलिए पक्षपात को रोकने के लिए इस तरह का फैसला एक जरूरी कदम साबित होगा.''

प्रोफेसर चौधरी एक वाकया बताते हैं. वो बताते हैं कि एक बार वो सिविल जज की परीक्षा का इंटरव्यू लेने इलाहाबाद गए थे. इंटरव्यू लेने वाले बोर्ड में इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक जज साहब भी शामिल थे. उस समय बोर्ड के सदस्यों को अभ्यर्थी का जो ब्योरा दिया जाता था, उसमें उसकी जाति भी लिखी रहती थी. प्रोफेसर चौधरी बताते है कि इंटरव्यू देने एक छात्र आया. उसका इंटरव्यू पूरा हो जाने पर बोर्ड के चेयरमैन ने पूछा कि उस छात्र को कितने नंबर या ग्रेड दिए जाएं. इस पर हाई कोर्ट के उस जज ने तपाक से कहा कि कोटे वाला लड़का है कुछ भी दे दीजिए. प्रोफेसर चौधरी बताते हैं कि जज साहब के यह कहने पर मैंने आपत्ति जताई और कहा कि उस छात्र का मूल्यांकन भी उसकी योग्यता के आधार पर होना चाहिए और वह जितना योग्य हो, उसे उतना नंबर मिलना चाहिए. प्रोफेसर चौधरी कहते हैं कि इसी से आप अंदाजा लगाइए कि नौकरियों के लिए होने वाले इंटरव्यू में किस तरह के भेदभाव का सामना दलित वर्ग से आने वाले उन्मीदवारों को करना पड़ता होगा.
केंद्र सरकार की नौकरियों में दलित
नौकरियों में दलितों के प्रतिनिधित्व का एक आंकड़ा देखिए. सरकार ने 10 जुलाई 2019 को लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस सांसद दिव्येंदु अधिकारी के सवाल के जवाब में बताया था कि भारत सरकार के 89 सचिवों में से सिर्फ एक सचिव अनुसूचित जाति (एससी) और तीन सचिव अनुसूचित जनजाति (एसटी) वर्ग से हैं. इन 89 सचिवों में से एक भी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का नहीं था. बीते दो सालों में इस आंकड़े में बहुत बदलाव आया होगा, इसकी उम्मीद कम ही है.
सरकार के आंकड़ों के मुताबिक एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व अतिरिक्त सचिव, संयुक्त सचिव, निदेशक स्तर पर भी काफी कम है.
वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले प्रोफेसर एमपी अहिरवार कहते हैं कि अगर छीपाना ही है तो सभी वर्ग के उम्मीदवारों के सरनेम छिपाए जाएं, क्योंकि सामान्य वर्ग के अभ्यर्थी तो अपने सरनेम के साथ ही इंटरव्यू में शामिल होंगे. ऐसे में इंटरव्यू लेने वाले के लिए यह पता लगा लेना आसान होगा कि कौन अभ्यर्थी सामान्य वर्ग का है और कौन आरक्षित वर्ग का. वो कहते हैं कि हो सकता है कि इससे 100 फीसदी सफलता न मिले लेकिन जाति के नाम पर इंटरव्यू में होने वाले भेदभाव से कम से कम 90 फीसदी तक छुटकारा मिल सकता है. लेकिन केवल दलितों के सरनेम हटा देने भर से ही समस्या का समाधान नहीं होगा. सरनेम हटाना है तो सबके हटाए जाएं.

प्रोफेसर चौधरी बताते हैं कि सिविल जज के इंटरव्यू में शामिल एक सदस्य बाद में यूपीपीसीएस के चेयरमैन बने. उनसे मिलकर मैंने उन्हें इंटरव्यू में जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव के बारे में बताया. मेरी बात से वह सहमत हुए. यह बात 1995 के आसपास की है. प्रोफेसर चौधरी बताते हैं कि तब यूपीपीसीएस के चेयरमैन ने यह व्यवस्था बनाई कि इंटरव्यू अब केवल छात्र के कोड के आधार पर होगा न कि उसके बायोडाटा के आधार पर. इसका फायदा भी हुआ और पीसीएस में आरक्षित वर्ग के छात्रों का प्रतिनिधित्व बढ़ा.
प्रोफेसर चौधरी एक और बाकाया बताते हैं कि 1980 के दशक में वो एक बार गोरखपुर विश्वविद्यालय के टेबुलेशन (परीक्षा में मिले अंकों को दर्ज करना) के प्रमुख बनाए गए. वो बताते हैं कि इस दौरान मैंने देखा कि लिखित परीक्षा में आरक्षिति वर्ग के छात्रों का प्रदर्शन तो बढ़िया है. लेकिन प्रैक्टिकल परीक्षाओं में उनको अच्छे नंबर नहीं दिए जाते हैं. वो बताते हैं कि इसकी शिकायत उन्होंने तत्कालीन कुलपति से की थी. लेकिन उन्होंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया.
प्रोफेसर अहिरवार भी इससे सहमति जताते हैं. वो कहते हैं कि जहां भी प्रायोगिक परिक्षाएं और इंटरव्यू होते हैं, अगर वहां इसी तरह का पैटर्न अपना लिया जाए तो जाति के आधार पर होने वाला भेदभाव कम होगा और जिन लोगों में प्रतिभा होगी, वो सामने आएंगे.