SC-ST आरक्षण में 'क्रीमी लेयर' का पूरा मामला क्या है? सुप्रीम कोर्ट और सरकार का इस मामले पर क्या कहना है?
अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय के आर्थिक तौर पर सक्षम तबके, यानि एससी- एसटी समुदाय की क्रीमी लेयर के आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर सुनवाई करने जा रहा है. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 26 सितंबर को फैसला दिया था कि क्रीमी लेयर का कॉन्सेप्ट अब एससी- एसटी पर भी लागू होगा. जानिए यह पूरा मामला और क्या ये क्रीमी लेयर?
क्रीमी लेयर अब तक ओबीसी यानि अन्य पिछड़ा वर्ग पर ही लागू होता था. क्रीमी लेयर टर्म का इस्तेमाल पहली बार सत्तनाथन कमीशन ने 1971 में किया था. इसके बाद 1993 में इसका इस्तेमाल जस्टिस रामनंदन कमेटी ने किया था. लेकिन तब एससी एसटी कैटेगिरी को इससे बाहर रखा गया था.
इसे लागू करने के लिए पारिवारिक इनकम को पैमाना माना गया. जब 1993 में पहली बार क्रीमी लेयर लागू हुआ तो 1 लाख से ऊपर के सालाना आय वालों को इसमें रखा गया. समय की साथ यह सीमा बढ़ती गई और 2017 में हुए बदलावों के बाद अब 8 लाख रुपए सालाना से अधिक की आय वालों को क्रीम लेयर में रखा जाता है. देखें ये वीडियो:-
हालांकि साल 2015 में नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लासेज़ ने क्रीमी लेयर की सीमा को बढ़ाकर 15 लाख रुपए सालाना करने और ओबीसी कैटेगिरी में भी बैकवर्ड. मोर बैकवर्ड और एक्सट्रीमली बैकवर्ड श्रेणियां बनाने की सलाह दी थी.
फिलहाल क्यों और कैसे इसकी चर्चा हो रही है?
पिछले साल सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक बैंच ने फैसला सुनाया था कि संवैधानिक कोर्ट किसी भी क्रीमी लेयर को दिए गए आरक्षण को रद्द करने के लिए सक्षम है. सुप्रीम कोर्ट फैसला देते हुए कहा था कि बराबरी के सिद्धांत पर यह फैसला सुनाया जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि सरकारी नौकरियों में प्रमोशन के लिए एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर को बाहर रखा जाना चाहिए, जिससे आरक्षण का लाभ पाए लोग ही इसका फायदा न लेते रहें बल्कि जिन्हें आरक्षण की अधिक ज़रूरत हैं, उन तक इसका लाभ पहुंचे, लेकिन इसका अंतिम निर्णय राज्यों के हाथ में होना चाहिए.
इसके बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया था कि एससी-एसटी के लिए क्रीमी लेयर के मामले को ख़त्म किया जाए और सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले पर पुनर्विचार करे लेकिन इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने कहा कि इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट और क्रीमी लेयर
चीफ जस्टिस मिश्रा, जस्टिस कुरियन जोसफ, जस्टिस रोहिंटन एफ नरीमन, जस्टिस एस के कौल और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की पीठ ने कहा था कि एससी-एसटी में क्रीमी लेयर का मामला लागू होने से अनुच्छेद 341 तथा 342 के तहत राष्ट्रपति द्वारा जारी एससी-एसटी की सूची में छेड़छाड़ नहीं होती. इस सूची में जाति और उपजाति पहले की तरह बने रहते हैं.
सरकार लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से संतुष्ट नहीं हुई और इस फैसले को नीति में परिवर्तित करने से भी बचती रही. इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए भारत के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. सरकार की मांग है कि एसटी-एसटी आरक्षण से क्रीमी लेयर को बाहर करने का मामला सात सदस्यीय बेंच को रेफर किया जाए.
उसके बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वो दो हफ्ते का समय लेकर इस बाद की जांच करेगा कि इस मामले को साच सदस्यीय बेच को रेफर किया जाना चाहिए या नहीं. साल 1992 में इंद्रा साहनी का केस में 9 न्यायाधीशों की बेंच ने फैसला दिया था कि अनुसूचित जाति और जनजातियों को प्रमोशन में आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है केवल अपॉइंटमेंट में आरक्षण दिया जा सकता है. इसके बाद साल 1995 में सरकार ने आर्टिकल 16/ 4 A में एमेंडमेंट किया. जिससे एससी-एसटी समुदाय को प्रमोशन में भी आरक्षण का अधिकार मिल गया.
साल 2006 में नागराज मामले में ओबीसी आरक्षण पर एक बड़ा फैसला आया. जिसमें ओबीसी कैटेगरी के आरक्षण से क्रीमी लेयर को बाहर कर दिया गया. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 16 A की व्याख्या की. व्याख्या करते हुए कोर्ट ने कहा कि 16A में आरक्षण का प्रावधान को है लेकिन यह फंडामेंटल राइट नहीं है. फंडामेंटल राइट है समानता का अधिकार. साथ ही कोर्ट ने कहा कि प्रमोशन में आरक्षण के तीन क्राइटेरिया रहेंगे-
1) उस कम्यूनिटी का रिप्रेज़ेंटेशन उस क्षेत्र में है कि नहीं
2) अगर ठीक-ठाक रिप्रेज़ेंटेशन तो क्या आरक्षण एडमिनिट्रेटिव एफिशेंसी को मेंटेन करेगा कि नहीं
3) एससी एसटी का करेंट बैकवर्डनेस क्या है
इसी करेंट बैकवर्डनेस को आधार बनाते हुए 2018 में पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ का निर्णय आया. जिममें जस्टिस नरीमन ने पांचों न्यायधीशों की तरफ से एकमत होकर निर्णय दिया.
इसमें उन्होंने बैकवर्ड क्लासेज़ के इकॉनॉमिक क्राइटेरिया के भी शामिल कर लिया. क्योंकि इससे पहले सरकार ने क़ानून में बदलाव करके आरक्षण में आर्थिक आरक्षण जोड़ा दिया था. इसके लिए सरकारने संविधान में 103वां एमेंडमेंट किया.
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाते हुए 2006 के संविधान पीठ के उस फैसले का भी ज़िक्र किया जिसमें तब के मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने कहा था कि क्रीमी लेयर सिद्धांत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं होता है. यह सिद्धांत सिर्फ पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिये हैं और समानता के सिद्धांत के रूप में लागू नहीं होता है. लेकिन साथ ही यह भी कहा कि मौजूदा पीठ 2006 के फैसले से सहमत नहीं है.
इस मामले पर एससीएसटी समुदाय का क्या कहना है?
इस मामले पर एससीएसटी समुदाय का कहना है कि जब 1993 में 9 जजों की बेंच ने फैसला दिया था कि क्रीमी लेयर से एससी एसटी को बाहर रखा जाए तो 5 सदस्यीय बेंच कैसे इसके उलट फैसला दे सकती है.
साथ ही जब हमारे संविधान निर्माताओं ने इकॉनमिक क्राइटेरिया को आरक्षण के लिए कभी संविधान में रखा नहीं तो क्या आर्थिक आधार पर न्यायिक व्याख्या को नीतिगत तौर पर कैसे स्वीकार किया जा सकता है.
आरक्षण सामाजिक समानता के लिए दिया गया था, आर्थिक समानता के लिए नहीं.
देश की सरकारी नौकरियों में अभी भी 69% गैर ओबीसी, एससी एसटी समुदाय के लोग हैं. एस सी एस सी केटेगरी से पहले ही देश के उच्च पदों तक कम ही लोग पहुंच पाते हैं, अगर क्रीमी लेयर का नियम लागू होगा तो यह अनुपात और गिरेगा. 2011 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ग्रुप ए की सरकारी नौकरियों में - 11 फीसदी एससी से, 4.6 फीसदी एसटी से हैं जिनकी कुल संख्या लगभग तीन हजार के आस-पास है इसी तरह ग्रुप बी में 14 फीसदी, ग्रुप सी में 16 फीसदी और ग्रुप डी में - 19 फीसदी एससी एसटी समुदाय के लोग हैं. यह आंकड़ा दिखाता है कि देश के अहम पदों तक पहुंतचे- पहुंचते एससी एसटी समुदाय का प्रतिनिधित्व कम हो जाता है.
सरकार के आग्रह पर अब इन तमाम तर्कों और तथ्यों की जांच सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर करेगा. एक बार पहले ही सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले की पुर्नसमीक्षा की ज़रूरत को नकार चुका है. देखना होगा कि इस बार सुप्रीम कोर्ट इस फैसले को बड़ी बैंच के पास रेफर करता है या सरकार को एससी- एसटी केटेगरी में क्रीमी लेयर को लागू होता है. हालांकि सरकार के पास यह ऑप्शन अभी भी खुला है कि वो कानून बदल कर आर्थिक आरक्षण से एसटी- एसटी और उसकी क्रीमी लेयर को भी बाहर कर दे.
हालांकि साल 2015 में नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लासेज़ ने क्रीमी लेयर की सीमा को बढ़ाकर 15 लाख रुपए सालाना करने और ओबीसी कैटेगिरी में भी बैकवर्ड. मोर बैकवर्ड और एक्सट्रीमली बैकवर्ड श्रेणियां बनाने की सलाह दी थी.
फिलहाल क्यों और कैसे इसकी चर्चा हो रही है?
पिछले साल सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक बैंच ने फैसला सुनाया था कि संवैधानिक कोर्ट किसी भी क्रीमी लेयर को दिए गए आरक्षण को रद्द करने के लिए सक्षम है. सुप्रीम कोर्ट फैसला देते हुए कहा था कि बराबरी के सिद्धांत पर यह फैसला सुनाया जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि सरकारी नौकरियों में प्रमोशन के लिए एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर को बाहर रखा जाना चाहिए, जिससे आरक्षण का लाभ पाए लोग ही इसका फायदा न लेते रहें बल्कि जिन्हें आरक्षण की अधिक ज़रूरत हैं, उन तक इसका लाभ पहुंचे, लेकिन इसका अंतिम निर्णय राज्यों के हाथ में होना चाहिए.
इसके बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया था कि एससी-एसटी के लिए क्रीमी लेयर के मामले को ख़त्म किया जाए और सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले पर पुनर्विचार करे लेकिन इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने कहा कि इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट और क्रीमी लेयर
चीफ जस्टिस मिश्रा, जस्टिस कुरियन जोसफ, जस्टिस रोहिंटन एफ नरीमन, जस्टिस एस के कौल और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की पीठ ने कहा था कि एससी-एसटी में क्रीमी लेयर का मामला लागू होने से अनुच्छेद 341 तथा 342 के तहत राष्ट्रपति द्वारा जारी एससी-एसटी की सूची में छेड़छाड़ नहीं होती. इस सूची में जाति और उपजाति पहले की तरह बने रहते हैं.
सरकार लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से संतुष्ट नहीं हुई और इस फैसले को नीति में परिवर्तित करने से भी बचती रही. इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए भारत के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. सरकार की मांग है कि एसटी-एसटी आरक्षण से क्रीमी लेयर को बाहर करने का मामला सात सदस्यीय बेंच को रेफर किया जाए.
उसके बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वो दो हफ्ते का समय लेकर इस बाद की जांच करेगा कि इस मामले को साच सदस्यीय बेच को रेफर किया जाना चाहिए या नहीं. साल 1992 में इंद्रा साहनी का केस में 9 न्यायाधीशों की बेंच ने फैसला दिया था कि अनुसूचित जाति और जनजातियों को प्रमोशन में आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है केवल अपॉइंटमेंट में आरक्षण दिया जा सकता है. इसके बाद साल 1995 में सरकार ने आर्टिकल 16/ 4 A में एमेंडमेंट किया. जिससे एससी-एसटी समुदाय को प्रमोशन में भी आरक्षण का अधिकार मिल गया.
साल 2006 में नागराज मामले में ओबीसी आरक्षण पर एक बड़ा फैसला आया. जिसमें ओबीसी कैटेगरी के आरक्षण से क्रीमी लेयर को बाहर कर दिया गया. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 16 A की व्याख्या की. व्याख्या करते हुए कोर्ट ने कहा कि 16A में आरक्षण का प्रावधान को है लेकिन यह फंडामेंटल राइट नहीं है. फंडामेंटल राइट है समानता का अधिकार. साथ ही कोर्ट ने कहा कि प्रमोशन में आरक्षण के तीन क्राइटेरिया रहेंगे-
1) उस कम्यूनिटी का रिप्रेज़ेंटेशन उस क्षेत्र में है कि नहीं
2) अगर ठीक-ठाक रिप्रेज़ेंटेशन तो क्या आरक्षण एडमिनिट्रेटिव एफिशेंसी को मेंटेन करेगा कि नहीं
3) एससी एसटी का करेंट बैकवर्डनेस क्या है
इसी करेंट बैकवर्डनेस को आधार बनाते हुए 2018 में पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ का निर्णय आया. जिममें जस्टिस नरीमन ने पांचों न्यायधीशों की तरफ से एकमत होकर निर्णय दिया.
इसमें उन्होंने बैकवर्ड क्लासेज़ के इकॉनॉमिक क्राइटेरिया के भी शामिल कर लिया. क्योंकि इससे पहले सरकार ने क़ानून में बदलाव करके आरक्षण में आर्थिक आरक्षण जोड़ा दिया था. इसके लिए सरकारने संविधान में 103वां एमेंडमेंट किया.
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाते हुए 2006 के संविधान पीठ के उस फैसले का भी ज़िक्र किया जिसमें तब के मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने कहा था कि क्रीमी लेयर सिद्धांत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं होता है. यह सिद्धांत सिर्फ पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिये हैं और समानता के सिद्धांत के रूप में लागू नहीं होता है. लेकिन साथ ही यह भी कहा कि मौजूदा पीठ 2006 के फैसले से सहमत नहीं है.
इस मामले पर एससीएसटी समुदाय का क्या कहना है?
इस मामले पर एससीएसटी समुदाय का कहना है कि जब 1993 में 9 जजों की बेंच ने फैसला दिया था कि क्रीमी लेयर से एससी एसटी को बाहर रखा जाए तो 5 सदस्यीय बेंच कैसे इसके उलट फैसला दे सकती है.
साथ ही जब हमारे संविधान निर्माताओं ने इकॉनमिक क्राइटेरिया को आरक्षण के लिए कभी संविधान में रखा नहीं तो क्या आर्थिक आधार पर न्यायिक व्याख्या को नीतिगत तौर पर कैसे स्वीकार किया जा सकता है.
आरक्षण सामाजिक समानता के लिए दिया गया था, आर्थिक समानता के लिए नहीं.
देश की सरकारी नौकरियों में अभी भी 69% गैर ओबीसी, एससी एसटी समुदाय के लोग हैं. एस सी एस सी केटेगरी से पहले ही देश के उच्च पदों तक कम ही लोग पहुंच पाते हैं, अगर क्रीमी लेयर का नियम लागू होगा तो यह अनुपात और गिरेगा. 2011 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ग्रुप ए की सरकारी नौकरियों में - 11 फीसदी एससी से, 4.6 फीसदी एसटी से हैं जिनकी कुल संख्या लगभग तीन हजार के आस-पास है इसी तरह ग्रुप बी में 14 फीसदी, ग्रुप सी में 16 फीसदी और ग्रुप डी में - 19 फीसदी एससी एसटी समुदाय के लोग हैं. यह आंकड़ा दिखाता है कि देश के अहम पदों तक पहुंतचे- पहुंचते एससी एसटी समुदाय का प्रतिनिधित्व कम हो जाता है.
सरकार के आग्रह पर अब इन तमाम तर्कों और तथ्यों की जांच सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर करेगा. एक बार पहले ही सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले की पुर्नसमीक्षा की ज़रूरत को नकार चुका है. देखना होगा कि इस बार सुप्रीम कोर्ट इस फैसले को बड़ी बैंच के पास रेफर करता है या सरकार को एससी- एसटी केटेगरी में क्रीमी लेयर को लागू होता है. हालांकि सरकार के पास यह ऑप्शन अभी भी खुला है कि वो कानून बदल कर आर्थिक आरक्षण से एसटी- एसटी और उसकी क्रीमी लेयर को भी बाहर कर दे.
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