उत्तराखंड में रविवार को आई तबाही न तो पहली है और न ही आखरी. लेकिन क्या हम इन हादसों से कुछ सीख पाते हैं और अगर हां तो हम उन पर अमल कब करेंगे.
उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ के रैणी गांव में ग्लेशियर फटने से रविवार को पूरे इलाके में सैलाब आ गया. पानी तूफान की तरह आगे बढ़ा और रास्ते में आने वाली सभी चीजों को अपने साथ बहाकर ले गया. मलबे से अब तक 15 से अधिक शव निकाले गए हैं. प्रशासन ने 200 से अधिक लोगों के लापता होने की आशंका जताई है. इस हादसे ने 2013 के केदारनाथ हादसे की यादें ताजा कर दी हैं. केदारनाथ हादसे में करीब 6 हजारों लोगों की जान गई थी. कुछ हजार लाशें तो मिल गई थीं. लेकिन हजारों लोग अभी भी लापता हैं.
Main entrance of the Tapovan tunnel being cleared by ITBP personnel with the help of machines. #Dhauliganga #Chamoli#UttarakhandGlacialBurst pic.twitter.com/KghoyyHheP
— ITBP (@ITBP_official) February 8, 2021
कहा जा रहा है कि नंदा देवी ग्लेशियर का एक हिस्सा टूटने से भूस्खलन हुआ. इससे धौलगंगा, ऋषिगंगा और अलकनंदा नदियों में पानी का स्तर बढ़ गया. इससे एनटीपीसी की पनबिजली परियोजना तपोवन-विष्णुगढ़ परियोजना और एक निजी कंपनी के ऋषि गंगा परियोजना तबाह हो गई. इस हादसे के सोशल मीडिया पर शेयर किए जा रहे वीडियो को देखकर केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि वहां के हालात कितने भयावह रहे होंगे.
ITBP deploys sniffer dogs at the #TapovanTunnel for rescue operations. Visuals at the entry point of the tunnel.#Uttarakhand#Dhauliganga#Himveers pic.twitter.com/H9I9KITvDN
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अचानक आई इस बाढ़ में लापता हुए लोगों में से अधिकांश इन बिजली परियोजनाओं पर काम करने वाले मजदूर हैं. इस हादसे के बाद एक बार फिर देश में विकास और प्राकृतिक संरक्षण पर बहस शुरू हो गई है.
पर्यावरण प्रेमी इस इलाके में कुकरमुत्ते की तरह चल रहे हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट, सभी तरह के मौसम के अनुकूल सड़कों और रेल परियोजनाओं को लेकर बहुत से पहले से आपत्तियां जताते आ रहे हैं. वो इन परियोजनाओं के इस इलाके में पहाड़ों और जैव परिस्थितिकी से की गई छेड़छाड़ को लेकर बहुत पहले से चेताते आ रहे हैं. लेकिन जिम्मेदार लोगों ने उन आपत्तियों को दरकिनार कर विकास का रास्ता चुना है. वह भी किसी भी कीमत पर.

उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं का जाल फैला हुआ है. टिहरी समेत 39 परियोजनाओं के साथ ही उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड (यूजेवीएनएल) की 32 छोटी-बड़ी परियोजनाएं और विभिन्न कंपनियों की परियोजनाएं यहां चल रही हैं.
जल बिजली परियोजनाएं
उत्तराखंड सरकार ने 2005 से 2010 के बीच दो दर्जन से अधिक जलविद्युत परियोजनाओं की मंजूरी दी थी. 30 हजार करोड़ की लागत वाली इन परियोजनाओं के पूरा होने से 2944.80 मेगावॉट बिजली का उत्पादन होगा. गैर सरकारी संगठनों की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने इस एक विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के बाद उत्तराखंड की 24 हाइड्रो पॉवर परियोजनाओं पर रोक लगा दी थी.
बताया जा रहा है कि रविवार सुबह 11 बजे, जोशीमठ में धौलगंगा का जलस्तर 1388 मीटर रेकॉर्ड किया गया, जबकि 2013 की केदारनाथ बाढ़ के समय ये 1385.5 मीटर ही था. केदारनानाथ हादसे का समय बारिश का था, जबकि रविवार को हुआ हादसा सर्दियों में हुआ. और हादसे वाले इलाके में कुछ दिन पहले ही जोरदार बर्फबारी हुई थी.
केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाई थी. कमेटी का कहना था कि आपदा बढ़ाने में जलविद्युत परियोजनाओं की बड़ी भूमिका थी. कमेटी का कहना था कि इन परियोजनाओं में पहाड़ों को तोड़ने से लेकर उससे निकलने वाले मलबे के निस्तारण तक में नियमों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं. इसकी वजह से वहां की नदियां कई बार खतरनाक रूप धारण कर लेती हैं.

धौलीगंगा नदी, नंदा देवी बायोस्फियर रिज़र्व का एक अहम हिस्सा है. यह नंदा देवी बफरजोन का हिस्सा है. बफर जोन में प्रकृति से छेड़छाड़ बिल्कुल वर्जित मानी जाती है. इसी इलाके में इतनी जलविद्युत परियोजनाएं बनाई जा रही हैं.जिस रैणि गांव में के पास यह हादसा हुआ है, उसी के निवासियों की अपील पर उत्तराखंड हाई कोर्ट ने 2019 में बांध बनाने के लिए डायनामाइट से विस्फोट करने पर पाबंदी लगा दी थी. लेकिन सवाल यह उठता है कि यहां पर पहाड़ काटकर जो भी विकास हो रहा है, वह हो कैसे रहा है. अगर नियमों के खिलाफ कुछ हो रहा है तो वह किसी को दिखाई क्यों नहीं दे रहा है.
संवेदनशील इलाका
इसके अलावा उत्तराखंड के चमोली और उत्तरकाशी को भूकंप के लिए सबसे संवेदनशील, सेस्मिक जोन 4 और 5 में रखा गया है. इसके बाद भी यहां पर इन बिजली परियोजनाओं को मंजूरी कैसे मिली होगी. क्या इससे होने वाले नुकसान का अनुमान लगाया गया होगा.
वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालय अभी भी बनने की प्रक्रिया में है. इसलिए वो अभी बहुत मजबूत नहीं है. इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि दुनिया के सबसे ऊंच पर्वत ऐवरेस्ट की ऊंचाई लगातार बढ़ रही है. नेपाल और चीन ने पिछले साल संयुक्त रूप से बताया था कि समुद्र तल से ऐवरेस्ट की ऊंचाई 8 हजार 848 मीटर या 29 हजार 31.69 फुट है. नेपाल का कहना था कि पिछली बार की गणना के मुकाबले इस गणना में ऐवरेस्ट की ऊंचाई में 0.86 मीटर का इजाफा हुआ है.
उत्तराखंड में ही इसके दो रूप नजर आते हैं, गढ़वाल की तुलना में कुमाऊं के पहाड़ ज्यादा मजबूत हैं. इस वजह से जितनी भयानक प्राकृतिक गढ़वाल के हिस्से में दर्ज हैं, उतने कुमाऊं के हिस्से में नहीं आए हैं.

इस तरह की हर आपदा के बाद विकास बनाम प्राकृतिक सरंक्षण की बहस तेज हो जाती है. इस बार भी होगी. दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं. लेकिन विकास की योजनाओं की रूपरेखा बनाने वालों के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वो विकास का खाका ऐसा खीचें कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना ही विकास हो. और अगर नुकसान भी हो तो उसकी भरपाई की जा सके. आखिर पहाड़ों पर रहने वाले लोगों को भी वह सब मिलना चाहिए, जो आमतौर पर मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों को मिलती हैं. इसके लिए हमें विकास और प्रकृति के संरक्षण में एक संतुलन बनाना होगा.