अनुज्ञा बुक्स से आई पत्रकार डॉक्टर अरविंद दास की किताब 'मीडिया का मानचित्र' की समीक्षा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अशोक झा. यह किताब भारतीय मीडिया के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करती है.
पत्रकारिता कितना दिलचस्प है इसे कोई पत्रकार ही समझ सकता है. दूसरे लोग किनारे पर खड़े होकर पानी कितना गहरा है इसका अंदाज़ा भर लगा सकते हैं. और यह भी कि हर पत्रकार के पास एक पत्रकार के रूप में अपने पेशे (पत्रकारिता) और न्यूज़रूम के बारे में कहने को बहुत कुछ होता. ये बातें काफ़ी दिलचस्प होती हैं क्योंकि यह उनके पेशे और जिस खबर को वे लिखते-संवारते हैं उसके साथ इसका बहुत ही निकट का संबंध होता है. खबरों के साथ होने वाला 'खेल' और उस खेल को लेकर न्यूज़ रूम में होने वाली बहस काफ़ी दिलचस्प होती है. इस विषय पर किसी भी पोथी के हाथों-हाथ बिक जाने के बारे में किसी शक की कोई गुंजाइश नहीं है.

पर हम एक ऐसी पुस्तक का ज़िक्र कर रहे हैं जिसे लिखा है हिंदी में मीडिया पर शोधपरक पुस्तक लिखने वाले अरविंद दास ने. ‘मीडिया का मानचित्र’ मीडिया पर उनकी दूसरी पुस्तक है. पत्रकारिता में पीएचडी की डिग्री रखने वाले अरविंद दास बहुत ही संजीदा पत्रकार हैं और उनकी यह संजीदगी उनसे बात करते हुए भी आपको प्रभावित करती है.
मीडिया का पक्ष
अरविंद दास मीडिया का हिस्सा होते हुए मीडिया पर पैनी नज़र रखे हुए हैं. इस पुस्तक में उन्होंने भारत में हिंदी मीडिया का संक्षिप्त इतिहास ही लिख डाला है. इस पुस्तक में 147 पृष्ठ हैं और देश की हिंदी मीडिया के इतिहास को इसमें समेटना यह दर्शाता है कि वे इस कार्य में कितने कुशल हैं. चर्चा मीडिया के हर पक्ष की उन्होंने की है. इस पुस्तक को उन्होंने तीन खंडों में बाँटा है. पहला खंड है प्रिंट मीडिया का, दूसरा ऑनलाइन और तीसरा टीवी-सिनेमा का. उन्हें मीडिया के इन तीनों ही प्लेटफार्म पर काम करने का तजुर्बा है और अगर यह विरल नहीं है तो उतनी आम बात भी नहीं है. सो यह इस बात की गारंटी देता है कि अरविंद जो लिख रहे हैं उसका उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है. यह पुस्तक इस मायने में विशिष्ट है कि मीडिया का ही एक व्यक्ति मीडिया को विभिन्न कसौटियों पर कस रहा है और हमें उसके विचलन और वर्तमान स्वरूप तक आते-आते उसने क्या खो दिया उसके बारे में बताता है.
वर्ष 1991 में जब देश ने उदारीकरण को अपनाया तो उद्योग के अन्य सभी क्षेत्रों की तरह इसने मीडिया उद्योग को भी हर तरीक़े से प्रभावित किया. देश में निजी टीवी चैनलों की शुरुआत हुई और यह केबल टीवी के विस्फोट के रूप में आज हमारे सामने है. कुछ समय बाद ऑनलाइन मीडिया का आगमन हुआ.

यहां मीडिया अब सरकारी नहीं रही (वैसे सरकारी मीडिया अभी भी है) और निजी टीवी चैनल राजनीति को किसी अन्य मीडिया से ज़्यादा प्रभावित कर सकते हैं इस बात का बहुत जल्दी पता मीडिया और राजनीत दोनों को चल गया था. तकनीक ने न्यूज़ रूम को किस तरह बदला, राजनीति ने मीडिया को और मीडिया ने राजनीति को किस तरह प्रभावित किया इसकी समझ बनाने में यह पुस्तक हमारी मदद करती है. लेखक ने इस पुस्तक में मीडिया में जाति, जेंडर और महिला पत्रकारों की स्थिति की भी चर्चा की है. उन्होंने इस बात की भी चर्चा की है कि अख़बारों में संपादक की उपस्थिति किस तरह धीरे-धीरे कम होती गयी और विज्ञापन वाले या ब्रांड मैनेजर कैसे हावी होते गए. उन्होंने अख़बार की भाषा की भी चर्चा की है कि कैसे हिंदी का स्थान हिंग्लिश ने ले लिया. पेड न्यूज़, फ़ेक न्यूज़ और न्यूज़ के दूसरे रंगों की चर्चा भी इस पुस्तक में आपको मिलेगी. हिंदी फ़िल्मों के साथ साथ मैथिली फ़िल्मों की दशा और दिशा पर भी उन्होंने लिखा है जो इस विधा में भोजपुरी से काफ़ी पिछड़ गयी है. इसके अलावा भी इस पुस्तक में बहुत कुछ है.

पुस्तक अनुज्ञा बुक्स से प्रकाशित हुई है. मीडिया के बाहर के लोग जो मीडिया की आलोचना करते हैं, विशेषकर उन्हें यह पुस्तक हिंदी मीडिया के पतन (?) का एक स्पष्ट चित्र पेश करेगा.
(लेखक अशोक झा वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं. वो दिल्ली में रहते हैं.)