‘प्रेस की आजादी’ की बात करने वालों के दौरमें भारत में प्रेस की हालत ‘खराब’
16 नवंबर को “राष्ट्रीय प्रेस दिवस”के अवसर पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत देश के शीर्ष नेताओं नेमहामारी के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए मीडिया की सराहना की थी. साथ ही स्वतंत्र प्रेस को ‘लोकतंत्र की आत्मा’ बताते हुए कहा कि प्रेस की आज़ादी पर किसी भी प्रकार का हमला राष्ट्रीय हितों के लिए नुकसानदेह है और हर किसी को इसका विरोध करना चाहिए.वहीं उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू और केंद्रीय मंत्री अमित शाह और प्रकाश जावड़ेकर ने देश में प्रेस की आजादी की महत्ता पर जोर दिया और इस पर हमला करने वालों की आलोचना की.
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नेप्रेस की आज़ादी को लेकर भले ही बड़ी-बड़ी बातें की हों और देश में प्रेस को स्वतंत्र बताया हो लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार देश में पत्रकारों को उनके अनुकूल वातावरण देने में विफल रही है.
क्योंकि हाल ही में मंगलवार को जारी की गई ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक’ में भारत180 देशों में निराशाजनक रूप से 142वें स्थान पर है.और पिछले साल से उसकी रैंकिंग में कोई सुधार नहीं हुआ है. यानि देश में पत्रकारों को प्रदान किये जाने वाले वातावरण में कोई सुधार नहीं हुआ है.
हैरानी की बात ये है कि सूचकांक के मुताबिक,भारत का प्रदर्शनअपने पड़ोसी देशोंनेपाल, भूटान,श्रीलंका की तुलना मेंखराब रहा है. इन देशों में प्रेस की आजादी भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा है.सूचकांक में नेपाल को 106वां, श्रीलंका को 127वां और भूटान को 65वां स्थान प्राप्त है.
सूचकांक में भारत को पत्रकारिता के लिए‘खराब’ श्रेणी के देशों में रखा गया है और उन पत्रकारों के लिये सबसे खतरनाक देशों में से एक के रूप में माना है, जो अपने काम को ठीक से करने की कोशिश कर रहे हैं. साथ ही इस रिपोर्ट मेंचर्चित पत्रकारों के लिये राष्ट्रवादी सरकार द्वारा बनाए गए भययुक्त वातावरण को भी ज़िम्मेदार ठहराया है, जो अक्सर उन्हें राज्य विरोधी या राष्ट्र विरोधी करार देता है.
मीडिया विशलेषक विनीत कुमार प्रेस की इस दशा पर कहते हैं, “देखिए इसमें दो चीजें हैं- अगर हम थोड़ा पीछे जाएं तो अमेरिकी में भी सरकार ने वहां की मीडिया को डिग्रेड करने की काफी कोशिश की थी लेकिन वहां के मीडिया हाउस ने अपनी क्रेडिबिलिटी को बनाकर रखा और यहां की अगर हम बात करें तो जैसा सरकार के साथ-साथ मीडिया हाउस भी उन्हीं के साथ बह गए. यानी मीडिया खुद सेल्फ रेगुलेट हो चुका है. यानी इन्हें अपनी क्रेडिबिलिटी की बिल्कुल चिंता नहीं है.
पहले यह था कि पत्रकारों की प्रोफेशनल और आईडियोलॉजिकल जो लाइफ थी वह अलग अलग होती थी लेकिन अब वह एक हो चुकी है.आपकोविड में भी देखेंगे तो पाएंगे कि जो फेक न्यूज़ फैला रहे हैं उनमें मेन्स्ट्रीम मीडिया के बड़े पत्रकार शामिल है.अब उनकी आईडियोलॉजी जो सत्ता में बैठे लोग हैं उनसे बिल्कुल मैच करती है. पहले इतना खुलेआम इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के खिलाफ मीडिया काम नहीं करती थी. हालत यह है कि जो नॉनसेंस पॉलिटिकल पार्टी की तरफ से आते हैं उन्हें यह पत्रकार लीड स्टोरी बनाते हैं. फील्ड की पत्रकारिता और रिसर्च बिल्कुल खत्म हो चुकी है. तो जो मीडिया का बेसिक काम है वहीं अगर आप खत्म कर देंगे तो फिर क्या होगा और इसके लिए मीडिया वाले जिम्मेदार ही नहीं हैं बल्कि यह कहा जाएगा कि वह पत्रकारिता ही नहीं कर रहे हैं.”
विनीत आगे कहते हैं, “हालांकि इसमें कुछ इकोनामिक क्राइसिस भी है,सरकारी ऐड वगैरह, लेकिन उससे ज्यादा कहीं बड़ी भूमिका पत्रकार की पर्सनल आईडियोलॉजी है जिस वजह से देश की मीडिया की यह हालत हो रही है. जैसे कि आप देखेंगे जितने बड़े पत्रकार हैं उनको कौन कहता है कि वह नॉनसेंस वाले टवीट करें लेकिन वह करते हैं जिससे कि जो असल मुद्दे हैं वह लोगों तक ना आ पाएं और लोग नॉनसेंस में ही उलझे रह जाए. असल में जितने भी बड़े चेहरे हैं वह अब दिन-रात नॉनसेंस क्रिएट कर रहे हैं.जिससे कि नॉलेज इरेशनलिटी का स्पेस खत्म हो जाए.
और मैं इसमें एक चीज और जोड़ दो इसका संबंध सिर्फ सरकार बदलने से नहीं है पर सरकार बदल भी जाएगी तो भी यह लोग नहीं सुधरेंगे, नॉनसेंस किस हद तक आ चुका है. अब इसमें सुधार तभी संभव है कि जिसे मेंस्ट्रीम मीडिया कहते हैं वह आने वाले समय में डिजिटल प्लेटफॉर्म में मर्ज होगा तभी कुछ सुधार की गुंजाइश होगी.”
दरअसल देश में पिछले कुछ दिनों में पत्रकारों पर हमलों की घटनाओं में काफी इजाफा हुआ. जिससे देस में पत्रकारों की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरी है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक इनकी आलोचना हुई.
देश के शीर्ष नेताओं नेमहामारी के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए मीडिया की भले ही सराहना की. लेकिनपिछले साल कोविड के बाद हुए लॉकडाउन के दौरान राइट्स एंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप (आरआरएजी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 25 मार्च से हुए देशव्यापी लॉकडाउन लगने से लेकर मई केअंत तक भारत में महामारी को कवर करते हुए 55 पत्रकारों को निशाना बनाया गया.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड-19 महामारी के दौरान 25 मार्च से 31 मई 2020 के बीच विभिन्न पत्रकारों के ख़िलाफ़ 22 एफआईआर दर्ज की गईं, जबकि कम से कम 10 को गिरफ़्तार किया गया. इस अवधि में मीडियाकर्मियों पर सर्वाधिक 11 हमले उत्तर प्रदेश में हुए.
हाल ही में बीते अक्टूबर को केरल के एक पत्रकार सिद्दीकी कप्पन, जो उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में कथित बलात्कार पीड़िता के परिवार को लेकर रिपोर्ट करने जा रहे थे, को गिरफ्तार किया गया था और उन पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया है.वह अभी भी जेल में बंद हैं. इसके अलावा किसान आंदोलन के दौरान भी दो पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया था. जिन्हें बाद में छोड़ा गया.इन घटनाओं की काफी निंदा भी हुई थी और देश में पत्रकारों की आजादी को लेकर प्रदर्शन भी हुए.
गौरतलब है कि विश्व प्रेस स्वतंत्रतासूचकांक 2002 से प्रत्येक वर्ष अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता केपेरिस स्थित गैर-लाभकारी संगठन रिपोर्टर्स सेन्स फ्रंटियर्स या रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा प्रत्येक वर्ष प्रकाशित किया जाता है
यह सूचकांक पत्रकारों के लिये उपलब्ध स्वतंत्रता के स्तर के अनुसार 180 देशों और क्षेत्रों को रैंक प्रदान करता है. यह सूचकांक बहुलवाद के स्तर, मीडिया की स्वतंत्रता, मीडिया के लिये वातावरण और स्वयं-सेंसरशिप, कानूनी ढांचे, पारदर्शिता के साथ-साथ समाचारों और सूचनाओं के लिये मौज़ूद बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता के आकलन के आधार पर तैयार किया जाता है.