ममता बनर्जी ने वाममोर्चे को कमजोर करने के चक्कर में लगातार उन मुद्दों को उठाया जिनको बीजेपी लंबे अरसे से आक्रामक तरीके से उठाती रही है.
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी का संघर्ष चरम पर पहुंच गया है. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने राज्य में सरकार चला रही तृणमूल कांग्रेस पर उन्हें जान से मारने की कोशिश का आरोप लगाया है. चुनाव आयोग ने एतिहासिक फ़ैसला लेते हुए जनप्रतिनिधित्व क़ानून की धारा 324 का इस्तेमाल करते हुए, आख़िरी दौर के चुनाव प्रचार को एक दिन पहले ही ख़त्म करने का एलान कर दिया है. अब 16 मई रात दस बजे चुनाव प्रचार समाप्त हो जाएगा, जो प्रचार 17 मई को शाम पांच बजे समाप्त होना था.
राज्य की कुल 42 लोकसभा सीटों में से 33 सीटों पर वोट डाले जा चुके हैं और 19 मई को बची हुई 9 सीटों पर वोट पडेंगे. इस लोकसभा चुनाव में लगातार यह चर्चा चल रही है कि बीजेपी को उतर भारत के राज्यों में 2014 की जीती गई सीटों में से जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई बीजेपी पश्चिम बंगाल से कर सकती है.
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अंतिम चरण आते-आते यह साफ़ हो गया है कि यह चर्चा सिर्फ़ चर्चा नहीं है. पश्चिम बंगाल में बीजेपी एक बड़ी ताक़त बन कर चुनाव लड़ रही है. ममता बनर्जी जो 2011 में 34 साल के वाममोर्चा सरकार को उखाड़ कर सत्ता में आई, शायद अपने जीवन का सबसे मुश्किल चुनाव लड़ रही है.
ममता बनर्जी ने अपने आप को बीजेपी और नरेन्द्र मोदी से लगातार लोहा लेने वाली नेता के तौर पर पेश किया है. लेकिन लगता है कि ममता अपने ही खेल में फंस गई हैं और उन्हें इस चुनाव में इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है.
दरअसल ममता बनर्जी आज जिस ताक़तवर बीजेपी का सामना राज्य में कर रही हैं, उस बीजेपी को ताक़तवर बनाने का काम ममता बनर्जी ने ही किया है.
2011 तक पश्चिम बंगाल की राजनीति में बीजेपी की कोई गिनती नहीं थी. लेकिन ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद से बीजेपी की ताक़त लगातार बढ़ी है. 2011 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर मात्र 4 प्रतिशत था. लेकिन 2018 में पंचायत चुनाव के बाद बीजेपी का वोट शेयर राज्य में 16 प्रतिशत पर पहुंच गया.
पश्चिम बंगाल में बीजेपी की बढ़ती ताक़त इस चुनाव में दोगुनी तक पहुंच जाने का अनुमान भी लगाया जा रहा है. अगर ऐसा होता है तो बीजेपी राज्य में सीटों की शक्ल में भी अपनी ताक़त को बढ़ाने में कामयाब हो सकती है.
दरअसल 2011 में ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद पश्चिम बंगाल का राजनीतिक विमर्श पूरी तरह से बदल गया है. 1977 से 2011 के बीच राज्य में वाममोर्चे की सरकार रही. वाममोर्चे का मुख्य सामाजिक आधार मुसलमान, दलित और आदिवासी था.
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लेकिन राज्य में वाममोर्चा की ताक़त लगातार कम होती गई. जहां 2006 में वाममोर्चा को 37 प्रतिशत वोट मिला, 2009 में उसका वोट घट कर क़रीब 33 प्रतिशत रह गया, इसके बाद वाममोर्चा को 2011 में क़रीब 30 प्रतिशत वोट मिला, 2014 में 23 प्रतिशत और 2016 के विधानसभा चुनाव वाममोर्चा को मात्र 20 प्रतिशत वोट मिला और वो विधानसभा में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई.
इसकी एक बड़ी वजह थी कि ममता बनर्जी लगातार वामदलों को राज्य की राजनीति से मिटाने में लगी थीं. वाममोर्चे का एक बड़ा आधार मुस्लिम आबादी था जो राज्य में क़रीब 30 प्रतिशत है, जिसका बहुमत आज तृणमूल कांग्रेस के साथ जा चुका है. इसके साथ ही ग्रामीण इलाक़ों में भी वाममोर्चे के आधार को झटका लगा. लेकिन ममता बनर्जी की इन कोशिशों ने बीजेपी को राज्य में धार्मिक ध्रुवीकरण का मौक़ा दे दिया.
दरअसल ममता बनर्जी ने राज्य में मुसलमानों के वाममोर्चा की तरफ लौटने की आशंका को ख़त्म करने के लिए कई एसी योजनाएं बनाई जिसमें उन्हें नकद पैसा मिलता था. मसलन ममता सरकार ने मस्जिद के इमामों को वेतन देना शुरू किया. इस कदम ने बड़ी तादाद में मुसलमानों में टीएमसी के कार्यकर्ता खड़े कर दिए.
उधर ग्रामीण ग़रीबों की पार्टी बनने के लिए भी ममता बनर्जी ने कई योजनाएं शुरू कीं जिससे उसका आधार ग्रामीण इलाक़ों में बढ़ा. इस कदम के चलते बीजेपी को शहरी मध्यम वर्ग में अपनी पैठ बनाने में मदद की.
लेकिन पश्चिम बंगाल में बीजेपी के बढ़ने का जो सबसे बड़ा कारण बना वो है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जिसके लिए ममता सीधे ज़िम्मेदार हैं.
वाममोर्चा के पश्चिम बंगाल में और ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल में जो सबसे बड़ा फ़र्क आया वो था राजनीतिक और सामाजिक विमर्श का. वाममोर्चा के 34 साल के शासन काल में राज्य सरकार और सीपीएम ने कभी राज्य मे आरएसएस या उसके सहयोगी संगठनों को पैर नहीं जमाने दिए. 1992 में बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद भी राज्य में सांप्रदायिक सौहार्द नहीं बिगड़ा. गुजरात के 2002 के दंगों के बाद भी गुजरात के कई मुसलमानों ने पलयान किया तो उन्होंने कोलकत्ता को चुना.
लेकिन 2011 के बाद ममता बनर्जी लगातार बीजेपी की पिच पर बैटिंग करती रहीं. इसका उनको फ़ायदा भी मिला, वाममोर्चा लगातार राज्य की राजनीति मे कमज़ोर होता गया और मुस्लिम आबादी ममता के पीछे और मजबूती से लामबंद होता रहा. लेकिन जिस सांप्रदायिकता और बीजेपी से लड़ने का दावा ममता बनर्जी करती रही हैं, वो बीजेपी लगातार राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे उछालती रही और ममता बनर्जी उन मुद्दों को लपकती रहीं. वर्तमान लोकसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी ने वही मुद्दे चुने जो बीजेपी के कोर मुद्दे हैं.
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मसलन ममता बनर्जी ने असम में एनआरसी के मुद्दे को बंगाली अस्मिता से जोड़ दिया. बीजेपी इस मुद्दे पर लंबे समय से खेलती रही है. उसके अध्यक्ष अमित शाह उन लोगों को दीमक कहते रहे हैं जिनपर बाग्लादेश के घुसपैठिये होने का आरोप है. दूसरी तरफ बीजेपी ने सिटीजनशिप बिल को फिर से लाने का घोषणा की तो ममता बीजेपी से भिड़ गई.
दरअसल पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने राज्य में बीजेपी को एक नकली विपक्ष के तौर पर पैदा करने की कोशिश की, लेकिन केन्द्र मे सरकार चला रही बीजेपी राज्य में बड़ी ताक़त बनने को बेचैन है.
बीजेपी के पास नरेन्द्र मोदी जैसा आक्रामक प्रचारक है और अमित शाह जैसा चालाक अध्यक्ष और बेहिसाब पैसा, संसाधन और उसका असर इस चुनाव में दिखाई दे रहा है. राज्य में बेशक बीजेपी के पास संगठन नहीं है पर फिर भी उसके पास ताक़त है.
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