Lockdown: विकलांगों के प्रति निष्ठुर क्यों है मोदी सरकार?
"स्वयं एक विकलांग होने के नाते मैं बारहा ये महसूस करता हूं कि 21वीं शताब्दी के विश्व में आज भी विकलांगता संवाद का विषय नहीं बन सकी. किंतु ये एक ऐसा दौर है, जिसमें लोकतंत्र का सही अर्थ समझ कर सत्ता से मुखरता से प्रश्न पूछने की आवश्यकता है."
बंद कमरे में मेरी सांस घुटी जाती है,
खिड़कियां खोलूं तो ज़हरीली हवा आती है.
कमलेश्वर ने अपनी एक किताब (कितने पाकिस्तान) की शुरुआत इसी एक शेर से की है. शायर स्वयं कमलेश्वर ही हैं, या कोई दूसरा ये पता नहीं, मगर इस शेर के मायने साफ़ हैं.
यदि विश्व के मौजूदा माहौल के आइने में इस शेर को देखा जाए, तो इसका अर्थ और व्यापक तरीक़े से स्पष्ट होता है.
आज समूचा विश्व कोरोनावायरस की चपेट में है और लोग घरों में क़ैद है. भारत में भी इस वायरस का प्रभाव सतत बढ़ता ही नज़र आ रहा है. इस परिस्थिति में देश का मज़दूर वर्ग जितना प्रभावित हो रहा है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. इस वायरस से लड़ने के लिए तत्कालीन सरकार कितनी कटिबद्ध है, ये एक बड़े सवाल की तरह सामने खड़ा है. लेकिन, जनता में एक सौहार्द देखा जा सकता है, जो प्रशंसनीय है.
कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा अनेक प्रकार के अंधविश्वास फैलाने और जनता के सौहार्द को तोड़ने की कोशिश भी देखी जा सकती है, जो तत्कालीन भारतीय परिवेश में आश्चर्य की बात नहीं. जब देश में हर तरफ़ सांप्रदायिक मानसिकता का बोलबाला हो तो ये बात आम हो लगने लगती है.
देश का बुद्धिजीवी वर्ग आज सरकार की नीतियों पर निरंतर सवाल उठा रहा है, किंतु आज भी समाज का एक वर्ग हमेशा की तरह सवालों जवाबों की परिधि से पृथक अपने अस्तित्व को सुरक्षित करने में ही जुटा है.
यहां देश के विकलांग जनों की बात की जा रही है, जिन्हें देश के प्रधान मंत्री दिव्यांग कहते हैं. जनता के समक्ष स्वयं को दयालु और हृदयवान सिद्ध करने का ये वो अचूक अस्त्र है, जिसे समय-समय पर सत्ता बड़ी सुंदरता से इस्तेमाल करती है और इसके ज़रिए बड़ी सरलता से जनता का विश्वास जीत लेती है.
यदि उपलब्ध आंकड़ों की मानें, तो भारतीय जनगणना (2011) के अनुसार देश की (2.21%) आबादी विकलांग मानी जाती है, जिसमें 56% पुरुष और 44% महिलाएं शामिल हैं. एक रोचक आंकड़ा ये भी है कि विकलांग जनों की कुल आबादी का 61% हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है.
यहां उद्धृत आंकड़ों का तात्पर्य ये बिलकुल नहीं है कि सांख्यिकी को सरलता से याद कर लेने की कुशलता का प्रदर्शन चल रहा है, वरन इसका उद्देश्य ये है कि ये समझने का यत्न किया जाए कि ऐसी विकट परिस्थिति में सरकार इस विशेष तबके के लिए क्या विशेष सोच रही है. यहां ये भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि विकलांग वर्ग समाज का एक ऐसा तबका है, जिसे हर कदम पर किसी न किसी रूप में सहायता की आवश्यकता पड़ती रहती है.
ऐसे में सामाजिक दूरी को बनाए रखना कितना दूभर है ये समझने का विषय है. बड़ी तादाद में विकलांग छात्र/छात्राएं इस कठिन समय में अपने घरों से दूर हैं, जिन्हें अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अकल्पनीय समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. समाचार पत्रों और तमाम विज्ञप्तियों में सामाजिक दूरी बरकरार रखने के लिए सरकार द्वारा किए जाने वाले प्रयासों की खबरें निरंतर देखने को मिल रही हैं, किंतु विकलांगों को होने वाली समस्याओं पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है. कहने को तो 3 से अधिक मंत्रालयों ने विकलांगों की समस्याओं का ज़िम्मा ले रखा है, किंतु वास्तविकता तो कुछ और ही इशारा करती है.
स्वयं एक विकलांग होने के नाते मैं बारहा ये महसूस करता हूं कि 21वीं शताब्दी के विश्व में आज भी विकलांगता संवाद का विषय नहीं बन सकी. किंतु ये एक ऐसा दौर है, जिसमें लोकतंत्र का सही अर्थ समझ कर सत्ता से मुखरता से प्रश्न पूछने की आवश्यकता है.