देश में हर पांचवें दिन गटर में उतरने से किसी ना किसी सफ़ाई कर्मचारी की मौत हो जाती है. सफ़ाई कर्मचारियों में 90 प्रतिशत से ज़्यादा दलित समुदाय से हैं और इस नरक को भोगने की बड़ी वजह ग़रीबी भी है.
शुक्रवार यानी 28 जून को दिल्ली जल बोर्ड के सीवर ट्रीटमेंट प्लांट में मरम्मत का काम करने उतरे 9 मजदूरों में से तीन की मौत हो गई. 26 जून को हरियाणा के रोहतक में चार सफ़ाई कर्मचारी गटर में उतरे और मारे गए. इससे पहले गुजरात के सूरत में 7 लोग गटर की सफ़ाई करते हुए मारे गए. यह घटना थी 15 जून की. यानी 15 जून से 26 जून के बीच 14 लोगों की मौत गटर में उतरने की वजह से हो गई.
गटर की सफाई करने वाले 90% लोग दलित समुदाय से आते हैं और उनका जीवन घोर गरीबी में कटता है
राष्ट्रीय सफ़ाई कर्मचारी आयोग के अनुसार देश में हर पांचवें दिन गटर में उतरने की वजह से किसी ना किसी सफ़ाई कर्मचारी की मौत हो जाती है. सफ़ाई कर्मचारियों में 90 प्रतिशत से ज़्यादा दलित समुदाय से हैं और यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस नरक को भोगने की एक बड़ी वजह ग़रीबी भी है. लेकिन ग़रीबी से ज़्यादा बड़ी वजह है जाति.
देश के पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की कल यानी 28 जून को जयंती थी. नरसिम्हा राव ने स्वतंत्रता दिवस के दिन लालक़िले की प्राचीर से अपने भाषण में मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने का एलान किया था. लेकिन उस एलान में उन्होंने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया था उससे साफ़ हो जाता है कि इस देश के नीति-निर्माताओं की मानसिकता सफ़ाई कर्मचारियों को लेकर क्या रही है और एक जाति में पैदा होने की वजह से क्यों इंसान को जीते जी नरक भोगना पड़ता है. नरसिम्हा राव ने सफ़ाई कर्मचारियों के लिए जो शब्द इस्तेमाल किए थे वो थे – भंगी भाई. बवाल होने पर नरसिम्हा राव ने अपने इन शब्दों पर अफ़सोस प्रकट किया था.
हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी स्वच्छता और शौचालय पर काफ़ी ज़ोर दिया है जिसकी तारीफ़ होनी चाहिए. उन्होने कुंभ में स्नान के बाद सफ़ाई कर्मचारियों के पैर धोए. यह एक बड़ा संदेश था, छूआछूत के ख़िलाफ़. लेकिन क्या सचमुच में मोदी यह संदेश देना चाहते थे, इसमें शक होता है.
2007 में लिखी क़िताब कर्मयोग में मोदी मैला साफ़ करने को अध्यात्म की संज्ञा देते हैं. वो कहते हैं कि कोई सिर्फ़ पैसे के लिए यह काम नहीं कर सकता. अब आप समझिए मोदी मानते हैं कि अगर सफ़ाई कर्मचारियों को रोज़गार और बेहतर ज़िंदगी के अवसर दिए भी जाएं तो भी वो मैला साफ़ करना नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि इस नरक में उन्हें आध्यात्म यानि मुक्ति का रास्ता मिलता है.
कुंभ मेले के दौरान सफाई कर्मचारियों के पैर धोते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
1993 में संसद ने बाक़ायदा क़ानून पास करके मैला ढ़ोने की प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया है. 2013 में इस क़ानून को संशोधित करके मैला ढोने की प्रथा की परिभाषा को विस्तारित किया गया. इससे पहले सिर्फ़ सूखे शौचालयों को इस क़ानून के दायरे में रखा गया था. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने भी मार्च 2014 के एक आदेश में कहा है कि किसी भी सूरत में इंसान को दूसरे इंसान के मल को साफ़ करने में नहीं लगाया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में यह भी कहा कि किसी भी परिस्थिति में गटर साफ़ करने के लिए किसी व्यक्ति को उसमें ना उतारा जाए. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर गटर में सफ़ाई के लिए उतरे किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है तो उसे कम से कम दस लाख का मुआवजा दिया जाए. लेकिन ज़्यादातर मामलों में सीवर साफ़ करने के दौरान हुई मौत को ठेकेदारों पर मढ़ दिया जाता है और मरने वाले सफ़ाई कर्मचारियों को कुछ नहीं मिलता है.
इसकी वजह है कि सफ़ाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए बजट में जो प्रावधान किए जाने चाहिए वो नहीं किए जाते हैं. माना जाता है कि इसके लिए कम से कम 120 करोड़ सालाना ख़र्च किए जाने की ज़रूरत है लेकिन सरकार एक करोड़ रुपए भी इस पर ख़र्च करने को तैयार नहीं है और जो कर्मचारी गटर में मारे जाते हैं उनके परिवारों का पुनर्वास नहीं हो पाता है.
बेहद ग़रीब इन परिवारों के पुनर्वास के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अवहेलना खुले में की जा रही है. यह अफ़सोस का नहीं बल्कि राष्ट्रीय शर्मिंदगी का विषय है कि सामाजिक न्याय का यह मसला गंभीरता से नहीं लिया गया है. न्यू इंडिया के ज़माने में ग़रीबों का भारत गटर में और गहरा गिरता जा रहा है.
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