कृषि कानूनों में किसानों की कुछ मांगे जायज: भारतीय कृषि एवं खाद्य परिषद चेयरमैन
केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ महामारी के दौर में भी रार थम नहीं रही है.सरकार कृषि सुधार में अहम कदम बताकर इन तीन कृषि विधेयकों को लाई थी. लेकिन इन कानूनों के पास होते ही इनके विरोध में किसानों और विपक्ष ने पहले लोकल स्तर पर प्रदर्शन शुरू किया. और फिर उसके बाद पिछले 6 महीने से दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर बैठकर प्रदर्शन कर रहे हैं. साल 2022 तक किसानों की आमदनी बढ़ाने का वादा करने वाली केंद्र सरकार के इन विधेयकों का विरोध क्यों हो रहा है.
इस बारे में एशियाविल ने आईसीएफए यानि इंडियन चैंबर ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर के अध्यक्ष डॉ एमजे खान से बातचीत की.
भारतीय कृषि एवं खाद्य परिषद के चेयरमैन एमजे खान कहते हैं, “ये जो तीनों बिल हैं ये किसानों के लिए ऐसा सिस्टम बनाते हैं, जिससे किसान मार्केट में अच्छे से जुड़ सकें. अब तक तो अन-ऑर्गेनाइज मार्किट और सरकारी मंडी इन दोनों के बीच कोई सिस्टम नहीं था. तो इसमें जहां-जहां सरकार का मंडी सिस्टम अच्छे से डेवलप्ड था जैसे हरियाणा, पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश वहां का किसान अगर अपनी फसल बेचना चाहता तो उसे तो मंडी उपलब्ध थी. इसलिए उन्हें 90-100 परसेंट तक एमएसपी तो मिलना ही था. और यही वजह है कि हरियाणा, पंजाब में फसल एमएसपी या उससे ऊपर भी बिकती रही है. लेकिन बाकी देश में जहां मंडी सिस्टम पूरी तरह डेवलप नहीं हो पाया जैसे बिहार तो क्योंकि यहां गोरमेंट का सिस्टम सही नहीं रहा तो उससे क्या होता है तो फसल का रेट कई बार क्योंकि कोई अल्टरनेटिव है नहीं तो वह एक्सप्लोइटेटिव हो जाता है. या फसल के टाइम पर स्टोरेज सिस्टम नहीं है तो पूरा का पूरा मार्केट में आ जाता है तो दाम क्रैश कर जाते हैं. बाकी पूरे देश में 10 में से 9 कैस में किसानों को एमएसपी से नीचे फसल बेचनी पड़ती है.दूसरी बात यह भी है की 93% किसानों को एमएसपी का फायदा नहीं होता है. इसीलिए लोग पूरे साल ज्यादातर फसलों को एमएसपी से नीचे बेचने पर मजबूर होते हैं.”
भारतीय कृषि एवं खाद्य परिषद के चेयरमैन एमजे खान आगे कहते हैं, “अब जो यह तीनों कानून बने हैं उनमें सिचुएशन यह थी कि जहां मंडी सिस्टम डेवलप्ड है उन्हें तो यह डर था कि ऐसा ना हो धीरे-धीरे यह प्राइवेट में मर्ज हो जाए. इस वजह से प्रदर्शन कर रहे हैं, सरकार जल्दबाजी में यह कानून ले आई तो कहीं ना कहीं इनमें कुछ मसला है. बाकी देश के किसानों को इससे इस वजह से परेशानी नहीं थी क्योंकि उनके यहां सरकारी मंडी सिस्टम तो पहले से ही कॉलेप्स है तो उन्हें एक एक्स्ट्रा ऑप्शन मिल रहा है. हो सकता है उनके आने से उन्हें कुछ फायदा हो जाए. अब देखना यह है कि यह जो तीनों बिल है क्या इनमें सभी चीजें खराब है तो ऐसा नहीं है क्योंकि अगर कोई प्राइवेट से भी आएगा तो यहां मंडी बनाएगा तो इन्वेस्ट आएगा तो पार्टनरशिप आएंगी तो अल्टीमेटली किसानों को इसका कुछ फायदा होगा.कुछ चीजें ऐसी थी जिसमें किसानों का ऑब्जेक्शन जायज था. जैसे की जो नई मंडी बनेगी उनमें टैक्स नहीं लगेगा. और इसमें सरकार यह मत दे रही थी कि सरकारी मंडियों में तो कोई कैपिटल कॉस्ट होती नहीं है लेकिन जो प्राइवेट लगाएगा उसे अपना कैपिटल कॉस्ट रिकवर करना होगा इसलिए उन्हें टैक्स फ्री किया गया है. और किसान यह कह रहा था कि जो बाहर की मंडी हैं जब किसान इनके पास जाने लगेगा तो सरकार फिर अपनी मंडियों को बंद कर लेगी कि हमारी जरूरत नहीं रही तो फिर ये मोनोपोली हो जाएगी और उत्पीड़न शुरू हो जाएगा. तो क्या हो सकता है उसी को लेकर थोड़ी आशंका है लेकिन यह सब आपस में सही कम्युनिकेशन न होने की वजह से गलतफहमी हुई.”

अंत में खान कहते हैं, “साथ ही जो इनको लाने का प्रोसेस है वह सही नहीं हुआ उसी को लेकर किसानों को कहीं ना कहीं शंका है. साथ ही किसानों ने अब इसमें एमएसपी का मुद्दा और जोड़ दिया प्रदर्शन तो कर ही रहे हैं तो एमएसपी भी जोड़ दो. तो अब फ्यूचर में क्या होगा क्या नहीं होगा यह तो बाद की बात है लेकिन मुझे लगता है कि अगर और भी कंपनी आ जाएंगी तो एक्सप्लोइटेशन (शोषण) वाला सिस्टम शायद बनेगा नहीं क्योंकि वह आपस में भी प्रतियोगिता करेंगी. बस गोरमेंट लिखकर दे दे कि हमारा मंडी सिस्टम खत्म नहीं होगा. अब सरकार का भी यह है कि ना तो पहले एमएसपी कभी लिखित में, कानूनी रूप में नहीं था तो अब भी मत करो. और किसान यही कह रहे हैं की पहले यह तीन कानून नहीं थे तो लिखित में नहीं था और अब तीन कानून लाए हैं तो एमएसपी बस लिखित में दे दीजिए.यही आपस में गलतफहमी ज्यादा है.”