माओवादियों ने इस आदिवासी नेता की मौत का फ़रमान क्यों जारी किया, पढ़िए अबूझमाड़ की अबूझ कहानी
देश में माओवादी आंदोलन का गढ़ माने जाने वाले छत्तीसगढ़ के अबूझमाड के जंगलों में रहने वाले आदिवासी, वहां वनाधिकार कानून के तहत 'हैबीटैट राइट' या पर्यावास का अधिकार मांग रहे हैं. क्या जंगल पर पूरा अधिकार इन आदिवासियों को कभी मिल पाएगा.
रामजी धुरवा छत्तीसगढ़ के नारायणपुर के जिले के एक गांव के रहने वाले हैं. माडिया जनजाति से आने वाले रामजी अब अपने परिवार के साथ नारायणपुर में रहते हैं.

नारायणपुर छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित जिलों में से एक है. यहां के अधिकांश हिस्सों पर एक तरह से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का शासन चलता है. माओवादी कहते हैं कि वो आदिवासियों के जल जंगल जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं. वो चाहते हैं कि जंगल पर आदिवासियों का अधिकार हो.
भाकपा (माओवादी) का आरोप
भाकपा-माओवादी की माड डिविजनल कमेटी की ओर से जारी एक पर्चे के मुताबिक पार्टी ने जनअदालत में रामजी धुरवा को मौत की सजा सुना रखी है. इस पर अमल किया जाना बाकी है. माओवादी रामजी को पूंजीपतियोँ और साम्राजवादियों का सबसे बड़ा दलाल बताते हैं. उनकी लोगों से अपील है कि लोग रामजी की बातों पर विश्वास न करें.
यही सवाल मैंने रामजी से पूछा कि ऐसा क्यों है. मेरे इस सवाल पर वो कहते हैं कि अपने इलाके में विकास की मांग करने, सरकारी योजनाओं को लागू करवाने की बात करने और सड़क बनवाने की मांग करने की वजह से माओवादी ऐसा कर रहे हैं

उनके इलाके में उपलब्ध सरकारी सुविधाओं के सवाल पर रामजी बताते हैं कि उनके गांव में मीडिल क्लास या आठवीं तक का स्कूल है. वो बताते हैं कि उनके इलाके के बच्चों को आगे की पढ़ाई के लिए वहां से 15 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. वहीं 10वीं के बाद पढ़ाई के लिए वहां से करीब 70 किमी दूर नारायणपुर ही जाना पड़ता है. और वहां तक पहुंचना सबके बस की बात नहीं है.
यही हाल स्वास्थ्य सेवाओं का है, कुछ स्वास्थ्यकर्मी आते हैं और छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज करते हैं. बड़ी बीमारियों के इलाज के लिए उन्हें शहर तक की दौड़ लगानी पड़ती है. वहीं सड़क का तो उनके इलाके में नामों-निशान तक नहीं है.
छत्तीसगढ़ का आदिवासी इलाका
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों की यह एक आम सी तस्वीर है. ऐसा आप वहां हर जगह देख सकते हैं. खासकर उन इलाकों में जहां माओवादियों की दबदबा है.

जंगल पर अधिकार को लेकर आदिवासियों और सरकार के बीच बहुत पुरानी अदावत चल रही है. इस दिशा में एक सकारात्मक पहल करते हुए 2006 में डॉक्टर मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार में संसद में दिसंबर 2006 में अनुसूचित जनजाति औरअन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून 2006 पास किया था. इस कानून के तहत देश में 705 की आदिवासी जातियों की पहचान की गई है.
विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह
इनमें से 75 जनजातियों की पहचान विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) का दर्जा दिया गया है. इस कानून में प्रावधान है कि सरकार इन जातियों को इन इलाकों में हैविटैट राइट देगी. इसका मतलब यह हुआ कि वहां का सारा अधिकार इन पीवीटीजी के पास होगा.
छत्तीसगढ़ में 5 पीवीटीजी निवास करते हैं. राज्य सरकार ने और पीवीटीजी समुदाय की पहचान की है. लेकिन इसे केंद्र सरकार ने मान्यता नहीं दी है.
रामजी धुरवा अबूझमाडिया समाज के प्रमुख नेता हैं. यह जनजाति अबूझमाड़ के जंगलों में रहती है. अबूझमाड़ के जंगल दंडकारण्य का हिस्सा हैं. इसका कुछ हिस्सा महाराष्ट्र राज्य में भी पड़ता है.

अबूझमाड़ का नारायणपुर जिले की ओरछा तहसील में आता है. यह इलाका करीब 4 हजार वर्ग किलोमीटर में फैसा हुआ है. इस पूरे इलाके में कुल 36 ग्राम पंचायते हैं. इन ग्राम पंचायतों में 237 गांव आते हैं. इस इलाके की प्रमुख जनजाति अबूझमाडिया है. इसके अलावा भी कुछ और जनजातियां वहां रहती हैं.
हैबीटैट राइट की मांग
रामजी धुरवा इस इलाके में विकास कार्यों और सरकारी योजनाओं के अलावा माडिया समाज की हैबीटैट राइट देने की भी मांग कर रहे हैं. पिछले साल 22 जून से इसकी मांग जोर पकड़ने लगी. इसके लिए सर्व आदिवासी समाज और नई शांति प्रक्रिया ने कुछ बैठकें आयोजित कीं. इसमें कई और आदिवासी समाज के संगठनों ने हिस्सा लिया था. इस तरह की अंतिम बैठक बीते साल 15 दिसंबर को आयोजित की गई थी.
इसके बाद से रामजी माओवादियों के निशाने पर हैं. माओवादियों ने बैठक में शामिल अन्य लोगों से माफी मांगने को भी कहा है.
अरविंद नेताम को देश के बड़े आदिवासी नेताओं में से एक माना जाता है. उन्होंने 60 के दशक में कांग्रेस से अपने राजनीति सफर की शुरुआत की थी. वो पहली बार 1971 में सांसद चुने गए थे. नेताम व्यक्तिगत स्तर पर आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहते हैं.

हैबिटैट राइट के सवाल पर वो कहते हैं, ''कोई भी सरकार इसे देगी कैसे, क्योंकि अबूझमाड इलाके का सर्वे-सैटलमेंट तो आजतक हुआ ही नहीं. जब कागज़ पर कुछ है ही नहीं तो आदिवासियों को हैबीटैट राइट मिलेगा कैसे. इसके लिए जरूरी है कि उस इलाके का सर्वे-सैटलमेंट हो. लेकिन यह काम न तो अंग्रेज कर सकें और न आजादी के बाद आई सरकारें.''
सरकार की पहल
वहीं हैबिटैट राइट के सवाल पर नारायणपुर के कलेक्टर पीएस अमला कहते हैं कि माडिया आदिवासियों को हम हैबिटेट राइट दे ही नहीं सकते हैं. वो कहते हैं कि हैबिटेट राइट देने से समस्या पैदा हो जाएगी. जब माडिया आदिवासियों को हम हैबिटेट राइट दे देंगे तो बाकी के लोगों का क्या होगा. वो खेती कहां करेंगे. जंगल पर किसका अधिकार होगा. बाकी के लोग रहेंगे कहा.''
अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून में तीन तरह के अधिकार की बात की गई है. व्यक्तिगत अधिकार, सामुदायिक अधिकार और हैबिटैट राइट.
कलेक्टर साहब कहते हैं कि हमने कुछ गांवों में लोगों को जमीन के पट्टे आदि देकर, उनको व्यक्तिगत स्तर पर अधिकार देने की शुरुआत की है. लेकिन पूरी तरह से हैबिटैट राइट देने का मामला एक बहुत बड़ी प्रक्रिया का हिस्सा है.
वो बताते हैं कि सरकार ने आईआईटी रूड़की के सहयोग से पूरे अबूझमाड की सैटलाइट मैपिंग कराई है. अब सरकार की योजना जमीनों की पहचान करने की है. उनका वर्गीकरण किया जाना भी बाकी है.

कलेक्टर एक और बात करते हैं. वो कहते हैं कि यहां के आदिवासी पेंदा खेती करते हैं. इसके तहत एक साल जिस खेत में वो खेती करते हैं, अगले साल उसमें खेती नहीं करते हैं. दूसरे साल वो जंगल काटकर नया खेत बनाते हैं. कलेक्टर का कहना है कि इससे जंगल को बहुत अधिक नुकसान पहुंचता है. उन्होंने कहा कि यह आदिवासियों के लिए परंपरागत खेती तो हो सकती है.लेकिन इससे जंगल का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है. उन्होंने कहा कि आदिवासियों को अपनी इस परंपरा पर फिर से विचार करना होगा.
इस कारण को देखते हुए छत्तीसगढ़ में पेंदा खेती पर अब रोक लगा दी गई है.
माओवाद की समस्या
कलेक्टर कहते हैं कि माओवादी समस्या की वजह से हम अबूझमाड़ के जंगल में बहुत आगे तक नहीं जा पाते हैं. लेकिन उससे निपटने का एक तरीका हमने निकाला है. हमने गांवों में माओवादी खतरे का मूल्यांकन करते हुए उनका वर्गीकरण किया है.
अब उन गांवों में विकास योजनाएं ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, जहां माओवादियों की खतरा कम है. लेकिन ऐसे गांवों की संख्या बहुत कम है.

माओवाद की समस्या के सवाल पर अरविंद नेता अबतक की सरकारों की ओर से अपनाई गए तरीके पर ही सवाल उठाते हैं. वो कहतें हैं कि गोली का इलाज गोली नहीं हो सकती है. सरकारों को इस समस्या को लेकर अपना रवैया बदलना होगा. बातचीत इसका बेहतर समाधान हो सकता है.
सरकारों का रवैया
नेताम कहते हैं आजतक किसी भी सरकार ने इस समस्या की लेकर गंभीरता नहीं दिखाई. सारी सरकारें बहुत ही अनमने ढंग से समस्या से निपटती आई हैं. वो बताते हैं कि बस्तर में करीब 90 हजार सुरक्षा बल तैनात हैं और माओवादियों की संख्या 3-4 हजार के बीच है. इसके बाद भी वहां की समस्या जस की तस है.
नेताम कहते हैं कि बस्तर और अबूझमाड़ के इलाकों में आदिवासियों का दिमाग और पेट दोनों खाली है. यह माओवाद फैलने के लिए बहुत ही उर्वरा स्थिति है. माओवादी इसी का फायदा उठाते हैं. वो आदिवासियों का दिमाग और पेट दोनों भरते हैं और उन्हें अपने साथ मिलाते हैं.
माओवादियों ने हैबिटैट राइट को लेकर पर्चा जारी किया है. इसमें कहा गया है कि इसके तहत सरकार आदिवासियों को 1-2 एकड़ जमीन दे देगी और बाकी की जमीनें पूंजिपतियों की दे दी जाएंगी. लेकिन वो जंगल पर आदिवासियों के पूरे अधिकार के लिए लड़ रहे हैं. इसलिए जंगल पर आदिवासियों का पूरा अधिकार होने तक यह लड़ाई जारी रहेगी.

वहीं वरिष्ठ पत्रकार और नई शांति प्रक्रिया के संयोजक शुभ्रांशु चौधरी कहते हैं कि एक तरफ तो माओवादी कहते हैं कि वो आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ आदिवासी जब हैबीटैट राइट मांग रहे हैं तो वो उनके खिलाफ हो जा रहे हैं. जबकि यह अधिकार मिल जाने से आदिवासी और अधिकार संपन्न हो जाएंगे.
जंगलों पर आदिवासियों के हैबिटेट राइट को लेकर माओवादी विरोध क्यों कर रहे हैं. इस विषय पर उनके विचार हमें आधिकारिक तौर पर नहीं मिल पाया. ऐसे में अगर वो अपनी राय को हम तक पहुंचाते हैं तो हम उनकी राय की भी जगह देंगे.
आदिवासियों की अधिकारों की लड़ाई
आदिवासी अपने अधिकारों को लेकर बहुत लंबे समय से संघर्ष करते आ रहे हैं. उनकी यह लड़ाई आज भी जारी है. अभी बीते 1-2 साल में ही इसी छत्तीसगढ़ और उसके पड़ोसी राज्य झारखंड के आदिवासियों ने संविधान की पांचवीं अनुसूची में आदिवासियों को दिए गए अधिकारों को एक पत्थर पर लिख कर अपने-अपने गांव के बाहर लगा दिया था. इसे पत्थलगड़ी आंदोलन के नाम से जाना गया.

इस बात को लेकर भी काफी हंगामा हुआ था. उस समय छत्तीसगढ़ और झारखंड दोनों जगह बीजेपी की सरकारें थीं. दोनों ने ही इस कड़ाई के साथ निपटा था. झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने तो इसे विदेशी ताक़तों की साजिश तक बता दिया था.इसका ख़ामियाज़ा उन्हें बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ा था. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना था कि रघुवर की हार के पीछे पत्थलगड़ी आंदोलन का दमन भी एक कारण था.
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि देश भर की राज्य सरकारें पीवीटीजी समुदायों के हैबिटैट राइट को लेकर क्या रुख अपनाती हैं. क्योंकि पूरे देश में यह अधिकार अब तक किसी भी पीवीटीजी को नहीं मिला है.
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