चुनावी आंकड़े: उत्तर प्रदेश में बीजेपी क्यों कमज़ोर नहीं है
असली चुनौती उत्तर प्रदेश में है, जहां बीजेपी को पिछले चुनाव में 61 सीटों का फ़ायदा हुआ था. बीजेपी को पिछले तीन चुनावों में उत्तर प्रदेश में जितनी सीटें मिली थीं उन सबको जोड़ दें तब भी 2014 में मिली सीटें उनसे बहुत ज़्यादा बैठती हैं.
पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान संभालने के बाद कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ‘बोट पर चर्चा’ करने में जुट गई हैं. कुछ दिन पहले पश्चिमी यूपी के प्रभारी ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ वो भीम आर्मी नेता चंद्रशेखर रावण से भी मिलने पहुंची थीं, लेकिन भीम आर्मी ने कांग्रेस के साथ किसी भी गठजोड़ से इनकार कर दिया है. सपा-बसपा मिलकर साझा रैलियां करने में लगी हैं और बीजेपी अपनी ज़मीन बचाने के लिए ताबड़तोड़ बैठक कर रही है.
बीते कुछ महीनों से नाराजगी दिखा रहे रहे दोनों सहयोगी दलों को मनाने में बीजेपी एक हद तक क़ामयाब हो गई है. 2014 में दो सीटें जीतने वाले अपना दल ने फिर से बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. पार्टी नेता और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल मिर्ज़ापुर की सीट को बचाने/दोबारा जीतने के लिए चुनावी मैदान में उतरेंगी.
पूर्वी उत्तर प्रदेश की कांग्रेस प्रभारी प्रियंका गांधी
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर ने खुलेआम एनडीए से अलग होने का ऐलान किया था. लेकिन, बीजेपी को इस बात का बखूबी अंदाज़ा है कि अगर ये दोनों पार्टियां एनडीए से अलग हुईं तो पिछड़ी जातियों का एक हिस्सा बीजेपी से बिदक जाएगा. इसलिए, आदर्श आचार संहिता लागू होने से चंद घंटे पहले ही योगी आदित्यनाथ सरकार ने 75 नेताओं को स्वायत्त बोर्ड्स, आयोगों और निगमों का अध्यक्ष और सदस्य नियुक्त किया. इनमें अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के भी कई विधायक शामिल हैं.
अपना दल के साथ जिस तरह सीट बंटवारा हो गया उस तरह सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ हुआ नहीं है. एसबीएसपी 2019 के चुनाव के लिए बीजेपी से जितनी सीटों की मांग कर रही है, बीजेपी को उतनी सीटें मंजूर नहीं है. लेकिन, इसके बावजूद अमित शाह इस कोशिश में लगे हैं कि यूपी में गठजोड़ बन जाए. हो सकता है कि बिना कोई टिकट दिए भी बीजेपी राजभर को मना ले.
इस मान-मनौव्वल की सीधी वजह है समाजवादी पार्टी और बीएसपी का गठबंधन. पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में एकतरफ़ा जीत हासिल की थी. बीजेपी ने 80 में से 71 सीटों पर कब्जा किया और उसकी सहयोगी पार्टी अपना दल को 2 सीटें मिलीं थीं. इस तरह एनडीए को 80 में से 73 सीटों पर जीत मिली थी. कांग्रेस के पास सोनिया और राहुल गांधी की 2 सीटें थीं और समाजवादी पार्टी के पास मुलायम सिंह यादव परिवार की 5 सीटें. वोट प्रतिशत के हिसाब से देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बीएसपी का खाता भी नहीं खुल सका था.
बीजेपी ने इसके बाद विधानसभा चुनाव में भी भारी जीत दर्ज की. हवा का रुख देखते हुए समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने लोकसभा की तीन सीटों पर हुए उपचुनाव में गठबंधन किया और पासा पलट गया. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी दोनों प्रमुख पार्टियां गठजोड़ कर मैदान में उतरी हैं. अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल भी इस गठबंधन का हिस्सा है. ज़ाहिर है ये गठबंधन बहुत मज़बूत दिख रहा है.
केंद्र की सत्ता तक पहुंचने के लिए बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में जीत हासिल करना बहुत ज़रूरी है. पिछले चुनाव में एनडीए को 336 में से 104 सीटें उत्तर प्रदेश और बिहार में मिली थी. यानी लगभग एक तिहाई सीटें. अकेले बीजेपी की बात करें तो 282 में से उसने 93 सीटें इन दो राज्यों में जीती थी. यानी एक लगभग एक तिहाई.
बिहार में इस बार गठबंधन के हिसाब से बीजेपी 2014 से बेहतर स्थिति में है. उसे एक सहयोगी पार्टी (उपन्द्र कुशवाहा की आरएलएसपी) का नुक़सान हुआ है, जबकि जेडीयू जैसी बड़ी पार्टी उसके साथ जुड़ी है. सहयोगी पार्टियों पर भरोसे का ही सबब है कि बीजेपी वहां 2014 में जीती गई सीटों (22) से भी कम सीटों (17) पर उम्मीदवार उतारने को तैयार हो गई.
साफ़ है कि असली चुनौती उत्तर प्रदेश में है, जहां बीजेपी को पिछले चुनाव में 61 सीटों का फ़ायदा हुआ था. बीजेपी को पिछले तीन चुनावों में उत्तर प्रदेश में जितनी सीटें मिली थीं उन सबको जोड़ दें तब भी 2014 में मिली सीटें उनसे बहुत ज़्यादा बैठती हैं.
2014 में बीजेपी इकलौती बड़ी पार्टी थी, जिसका वोट शेयर बढ़ा. ज़ाहिर है कि बीएसपी, एसपी और कांग्रेस का वोट शेयर बीजेपी की क़ीमत पर गिरा. लेकिन, अगर इन तीनों पार्टियों के कम हुए वोट शेयर को एक साथ जोड़ें तो ये आंकड़ा होता है 19.63%. कांग्रेस का वोट शेयर 10.75 फ़ीसदी कम हुआ, बीएसपी का 7.82 फ़ीसदी और समाजवादी पार्टी का 1.05 प्रतिशत. लेकिन बीजेपी के वोट शेयर में 24.80 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई.
बीएसपी-एसपी गठबंधन से राज्य का समीकरण बदल गया है
साफ़ है कि बीजेपी के पक्ष में उत्तर प्रदेश की जनता पूरी तरह लामबंद थी. लेकिन, अब यही आंकड़े बीजेपी के लिए चुनौती बन गए हैं. बदले समीकरण में 2014 के प्रदर्शन को दोहराना आसान नहीं है. बीजेपी ये देखकर भले ही आश्वस्त हो सकती है कि 2014 में बीएसपी+एसपी+आरएलडी का सम्मिलित वोट शेयर 19.60+22.20+1.00 फीसदी यानी 42.80 फ़ीसदी था, जोकि बीजेपी के वोट शेयर 42.30 फ़ीसदी से थोड़ा ही ज़्यादा है.
लेकिन, इन तीनों पार्टियों के गठजोड़ के बाद साझे उम्मीदवार के पक्ष में पिछली बार से ज़्यादा वोट पड़ने की संभावना को बीजेपी किसी भी तरह नज़रअंदाज़ नहीं कर रही. यही वजह है कि एक फ़ीसदी और उससे भी कम वोट पाने वाली अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठबंधन को बीजेपी बहुत ज़्यादा तवज्जो दे रही है.
पूरे देश में आज भी ग़ैर-बीजेपी, ग़ैर-कांग्रेस को वोट डालने वाले मतदाताओं की तादाद लगभग आधी है और 2014 में ‘मोदी हवा’ के बावजूद क्षेत्रीय पार्टियों ने 212 सीटें जीतने में क़ामयाबी हासिल की थी.
उत्तर प्रदेश की 22 सीटों पर बीजेपी का वोट शेयर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को हासिल कुल वोट शेयर से भी ज़्यादा था. लेकिन, पांच साल सत्ता में गुजारने के बाद उत्तर प्रदेश की ज़मीन पर मोदी सरकार का असल टेस्ट इस चुनाव में ही होगा.
बीजेपी के लिए आश्वस्त करने वाली बात ये है कि कांग्रेस आधिकारिक तौर पर बीएसपी, एसपी, आरएलडी का हिस्सा नहीं है. अनाधिकारिक तौर पर इन दोनों गुटों में कुछ आपसी समझदारी ज़रूर बनी है और दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के लिए कुछ सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारे, लेकिन प्रदेश की बाक़ी सीटों पर बीजेपी के साथ कांग्रेस और सपा-बसपा गठबंधन का त्रिकोणीय मुक़ाबला होना है.
आंकड़ों के हिसाब से त्रिकोणीय मुक़ाबला बीजेपी के पक्ष में झुका रहता है. बीजेपी के पक्ष में वोट डालने वाले ज़्यादातर मतदाताओं का वोट ‘ख़राब’ नहीं होता. 2014 के चुनाव में बीजेपी ने वोट शेयर को जिस तरह सीटों में तब्दील किया वो भारतीय इतिहास में अभूतपूर्व था. 31 फ़ीसदी वोट शेयर के साथ आज तक किसी भी पार्टी ने 282 सीटें नहीं जीती थीं.
दूसरे शब्दों में कहें तो बीजेपी ने उत्तर प्रदेश समेत उन तमाम राज्यों में अपने समर्थकों को बांध रखा है, जहां उसकी ज़मीन है. दूसरी पार्टियों के पक्ष में आंकड़े इसकी गवाही नहीं देते. दो-ध्रुवीय टक्कर के मुक़ाबले बीजेपी के लिए त्रिकोणीय या बहुकोणीय मुक़ाबला ज़्यादा मुफ़ीद बैठता है.
ऐसे में अगर कांग्रेस और सपा-बसपा-रालोद के बीच पर्दे के पीछे तालमेल नहीं बना और दोनों गुट नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी के ख़िलाफ़ ज़ोरदार तरीक़े से चुनाव लड़े और जनता को ये भरोसा दिलाने में क़ामयाब रहे कि वही बीजेपी को हराने का पोटेंशियल रखते हैं तो इसका सीधा फ़ायदा बीजेपी को मिलने वाला है.
सपा-बसपा-रालोद और कांग्रेस के बीच जिन सीटों पर तालमेल बन गया है, वहां बीजेपी के लिए जीत हासिल करना बेहद चुनौतीपूर्ण काम होगा. जिन सीटों पर बीजेपी की सीधी टक्कर इन दोनों में से किसी एक पक्ष के साथ हो, बीजेपी के लिए वहां भी चुनौती बड़ी होगी, लेकिन अगर इन दोनों गुटों को किसी सीट पर व्यापक वोट मिलते हैं तो बीजेपी अपनी बनी-बनाई ज़मीन को फिर से बचाने में क़ामयाब हो सकती है. हाल-फ़िलहाल तस्वीर यही दिख रही है कि ज़्यादातर सीटों पर त्रिकोणीय मुक़ाबले के लिए तीनों पक्षों ने कमर कस ली है.
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