सीजेआई एनवी रमना ने कानून मंत्री के सामने न्यायिक बुनियादी ढांचे के सुधार पर जताई नाराजगी
शनिवार को बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ के उपभवन की दो शाखाओं के उद्घाटन के मौके पर बोलते हुए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एनवी रमना ने न्यायिक आधारभूत ढांचे को लेकर चिंता जताई.
उन्होंने कहा कि यह चौंकाने वाली बात है कि न्यायिक बुनियादी ढांचे में सुधार और उसका रखरखाव ‘अस्थायी और अनियोजित’ तरीके से किया जा रहा है. रमना ने कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि इस ढांचे में सुधार किया जाना चाहिए क्योंकि न्याय तक पहुंच में सुधार के लिए यह बहुत आवश्यक है. समाज के लोगों का सबसे ज्यादा भरोसा न्याय व्यवस्था पर ही होता है और एक लोकतंत्र में न्यायालय ही आम आदमी को उसके लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी देता है. इस अवसर पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री किरण रिजीजू और अन्य लोग भी उपस्थित थे.
उन्होंने बताया कि इसका प्रस्ताव कानून मंत्रालय को भेजा गया है. साथ ही कानून मंत्री से आग्रह भी किया कि संसद के आगामी सत्र में इस मुद्दे को उठाकर प्रस्ताव में तेजी लाई जाए. वहीं किरण रिजिजू ने कहा कि न्यायपालिका को न केवल पूरा समर्थन दिया जा रहा है बल्कि उसे मजबूत बनाने के लिए हर संभव कार्य किये जा रहे हैं. साथ ही उन्होंने न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच ‘सामंजस्यपूर्ण संबंध’ का आह्वान भी किया.
The Chief Justice of India NV Ramana on Saturday said that the Courts in India have repeatedly upheld the rights and freedoms of individuals.
— Live Law (@LiveLawIndia) October 23, 2021
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मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा कि आज औरंगाबाद में जिस इमारत का उद्घाटन किया गया है उसकी परिकल्पना 2011 में की गई थी. इस योजना को लागू करने में 10 साल का समय लग गया जो बड़ी चिंता की बात है. एक प्रभावी न्यायपालिका अर्थव्यवस्था की वृद्धि में मदद कर सकती है. रमना ने अफसोस जताते हुए कहा कि देश में इसे लेकर ‘चलता है’ वाला रवैया है. यह मानसिकता बन गयी है कि अदालतें जर्जर इमारतों में ही चलती हैं. कई अदालतों में पर्याप्त सुविधाएं तक नहीं हैं, वे जर्जर इमारतों में काम कर रही हैं. सिर्फ़ 5 प्रतिशत अदालत परिसरों में ही मूलभूत चिकित्सा सुविधाएं हैं. वहीं 26 प्रतिशत अदालत परिसरों में महिलाओं के लिए अलग शौचालय और 16 प्रतिशत में पुरुषों के लिए शौचालय नहीं हैं. इससे काम करना कठिन हो जाता है.
उन्होंने आगे कहा कि केवल 54 प्रतिशत अदालत परिसरों में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था है. जबकि सिर्फ 32 प्रतिशत अदालत कक्षों में अलग रिकॉर्ड कक्ष हैं. लगभग 50 प्रतिशत न्यायालय परिसरों में पुस्तकालय नहीं है. केवल 27 प्रतिशत अदालत कक्षों में न्यायाधीशों की मेज पर कम्प्यूटर रखे हुए हैं, जिनमें वीडियो कांफ्रेंस की सुविधा है. देश में 26 फीसदी अदालतों में महिलाओं और 16 फीसदी अदालतों में पुरुषों के लिए शौचालय नहीं हैं. देश के 46 फीसदी कोर्ट परिसरों में शुद्ध पीने के पानी की व्यवस्था नहीं है. न्यायिक अधिकारियों के स्वीकृत पद 24,280 हैं जबकि उनके लिए 20,143 हाल उपलब्ध हैं. सीजेआई ने कहा कि लोकतांत्रिक समाज के लिए न्यायालयों का होना बहुत आवश्यक है.
न्यायपालिका के बुनियादी ढांचे की इन समस्याओं को और ज्यादा समझने के लिए हमने हरियाणा एवं पंजाब हाईकोर्ट के वकील रविंद्र ढुल से बातचीत की.
रविंदर ढ़ुल ने मुझे बताया, “मैं दो तीन चीजें बताता हूं. जहां तक न्यायपालिका के सुधार की बात है यह समस्या आज की नहीं है बहुत पुरानी है. पहली बात, सुप्रीम कोर्ट को छोड़ दें तो कोई भी ऐसी हाईकोर्ट नहीं है जहां पर जज की वैकेंसी पूरी हो. दूसरी बात, कोई भी लोअर कोर्ट ऐसी नहीं है जहां जज की वैकेंसी हो रही हो. और पर पर्सन जजों की उपलब्धता जो है वह इंडिया में दूसरे देशों के मुकाबले बहुत कम है. तो न्यायपालिका न केवल ओवर-बर्डन है बल्कि जो न्यायपालिका में बुनियादी सुविधाएं होनी चाहिए, वह न तो लोवर लेवल पर और न ही हायर लेवल पर मिल रही हैं.”
रविंदर ढ़ुल ने आगे बताया, “दूसरी बात लोअर लेवल पर लगभग इंफ्रास्ट्रक्चर तबाह हो चुका है. किसी भी लेवल पर आप सेक्रेटरेट देखें और उसे किसी भी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से तुलना करें तो ज्यादातर बिल्डिंग पुरानी है जिनके पास स्टाफ की भी कमी है. जिस कारण जज को वहां खुद एक क्लर्क की तरह बहुत ज्यादा काम करना पड़ता है. इस कारण एक जज को जिस तरह क्वालिटी टाइम देना चाहिए वह नहीं दे पाता. ऑल इंडिया जुडिशल सर्विस की बात चल रही है वह भी अभी तक नहीं हो पाई है. और अगर हायर लेवल पर बात करें तो हाईकोर्ट छोड़ो अब सुप्रीम कोर्ट में भी देखे तो. देखें तो वह वहां भी क्लाइंट्स का बुरा हाल है. सुप्रीम कोर्ट की गैलरी में भी क्लाइंट के खड़े होने तक जगह नहीं है. अंदर कोर्ट रूम तो छोड़ी दीजिए, ना वहां पार्किंग है यह हाल है सुप्रीम कोर्ट में. दिल्ली हाईकोर्ट मैं पार्किंग नाम की चीज नहीं है. सरकार को न्यायपालिका के अंदर जिस तरीके का इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना चाहिए वह सरकार बिल्कुल नहीं बना पाई है. जिसका सभी जजों पर प्रभाव पड़ता है.”