छत्तीसगढ : माओवादी और पुलिस दोनों से पीड़ित हैं आदिवासी
माओवादियों के गढ़ छत्तीसगढ़ में रहने वाले आदिवासी पुलिस और नक्सली हिंसा के शिकार हैं. इस कहानी में कुछ ऐसे ही पीड़ित आदिवासियों से बातचीत की गई है.
छत्तीसगढ़ को माओवादी का गढ़ माना जाता है. और इसके नारायणपुर को माओवादियों की राजधानी माना जाता है. प्राकृतिक संपदा के धनी इस राज्य में पिछले कई दशक से माओवादी सक्रिय हैं. वो हथियार के बल पर सरकार के साथ संघर्ष कर रहे हैं. उनका दावा है कि वो आदिवासियों के जल-जंगल और जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. इस लड़ाई में अबतक हजारों लोगों की जान जा चुकी है. केंद्र सरकार का कहना है कि मरने वालों में आदिवासी अधिक हैं. दोनों पक्षों की इस लड़ाई के केंद्र में आदिवासी हैं. इस लड़ाई को खत्म करने और राज्य शांति की स्थापना के लिए सिविल सोसाइटी के कुछ लोग आए हैं. वो राज्य में शांति की स्थापना के प्रयास में लगे हुए हैं.

छत्तीसगढ़ में शांति स्थापना के प्रयासों के क्रम में महात्मा गांधी की दांडी यात्रा की ही तरह एक पदयात्रा शुरू की गई. नारायणपुर से 12 मार्च को शुरू हुई. यह पदयात्रा 23 मार्च को राजधानी रायपुर पहुंच कर खत्म हुई. 'दांडी मार्च 2.0' नाम की इस पदयात्रा में 150 से अधिक लोगों ने शिरकत की. पदयात्रा में शामिल लोगों में माओवादियों और पुलिस की हिंसा के शिकार हुए लोग और उनके परिवार के लोग शामिल थे.
आदिवासियों की पीड़ा
'एशियाविल हिंदी' ने इस पदयात्रा में शामिल कुछ लोगों से बात कर यह जानने की कोशिश की कि उन्हें किस तरह की हिंसा का सामना करना पड़ा और वो अपनी समस्या का समाधान कैसे चाहते हैं.
पुनई दुग्गा एक पूर्व माओवादी हैं. वो 1987 में माओवादी आंदोलन में शामिल हुई थीं. करीब 27 साल तक माओवादी आंदोलन में सक्रिय रहने के बाद उन्होंने सितंबर 2016 में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था. उस समय सरकार ने उनसे वादा किया था कि उन्हें नौकरी, घर और डेढ़ लाख रुपये दिए जाएंगे. लेकिन पुनई को केवल 10 हजार रुपये ही मिले. इसके अलावा न तो उनको नौकरी मिली और न घर. उन्होंने 16 साल की एक लड़की को गोद ले रखा है. लेकिन वो स्कूल नहीं जाती है.

पुनई अभी नारायणपुर के सारागीपाल में अपने पति धनीराम के साथ रहती हैं. रोजी-रोटी के लिए उनका पूरा परिवार काम करता है. कांकरे के उनके पैतृक गांव में उनके पास 5 एकड़ जमीन है. लेकिन आत्मसर्पण के बाद माओवादी उनके पशुओं को उठा ले गए. उन्हें अब डर लगता है कि अगर वो अब अपने गांव किसकोटू गईं तो वो जिंदा वापस नहीं लौंटेंगी. पुनई चाहती हैं कि छत्तीसगढ़ में शांति आए. इसी शांति के लिए उन्होंने करीब 222 किमी की यह पदयात्रा की, उन्हें उम्मीद है कि एक न एक दिन शांति आएगी.
जेल दर जेल
रामूराम उपेंडी कांकेर जिले के अंतागढ़ के घुमर गांव के रहने वाले हैं. वो बताते हैं कि 2008 में एक दिन सुबह 4 बजे पुलिस के कुछ जवान उनके घर पहुंचे. पुलिस के जवानों ने उन्हें बताया कि उनके खिलाफ वारंट है. रामूराम ने जब कहा कि उन्होंने कुछ गलत किया ही नहीं तो वारंट किस बात का. इस पर पुलिसवालों ने कहा कि उन्हें पुलिस थाने चलना ही पड़ेगा. पुलिसवाले उनको उठाकर अंतागढ़ पुलिस थाने ले गए. वहां से उन्हें चालान कर जेल भेज दिया गया. उन्हें कांकेर जेल में 13 महीने तक रखा गया. वहां से उनको जगदलपुर जेल भेज दिया गया. वहां वो 5 महीने तक रहे. जगदलपुर से उन्हें रायपुर जेल ले जाया गया. वहां वो 3 महीने तक बंद रहे.
वो बताते हैं कि इस दौरान कई बार उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी गई. बाद में उन्हें अदालत ने बाइज्जत बरी कर दिया. इसके बाद वो अपने परिवार के साथ रह रहे हैं. जेल में जेलकर्मियों ने उनके साथ मारपीट की थी. इसका असर यह हुआ है कि अब वो बाएं कान से ठीक से सुन नहीं पाते हैं.

इसके पहले भी सन 2000 में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया था. वो बताते हैं कि एक बार तो पुलिस ने उन्हें बिना किसी वारंट के ही किसी और के नाम पर जेल भेजने की कोशिश की. लेकिन मजिस्ट्रेट से हस्तक्षेप कर उन्हें रिहा करवाया.
हिंसा से आजादी
दो लड़कों और एक बेटी के पिता रामूराम के पास 5 एकड़ खेत है. उसी पर खेती कर वो अपने परिवार का पेट पालते हैं. वो बताते हैं कि सिंचाई की सुविधा न होने की वजह से वो बारिश के पानी पर ही निर्भर हैं. वो धान की केवल एक फसल ले पाते हैं. रामूराम उपेंडी चाहते हैं कि अब छत्तीसगढ़ में शांति हो और आदिवासी भी पढ़े-लिखे और शांति से अपना जीवन व्यतीत करें.
रामूराम के गांव के ही परशुराम मंडावी भी खेती बाड़ी ही करते हैं. साल 2008 की एक रात जब वो अपने घर में सो रहे थे तो पुलिस ने उन्हें उठा लिया. पुलिस ने बाद में उन्हें नक्सली घोषित कर दिया. वो 2008 से 2009 तक जेल में रहे. उन्हें अदालत के आदेश पर 2009 में जगदलपुर जेल से रिहा किया गया. जब वो जेल में रहे तो उनके बच्चों और पत्नी को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. मंडावी भी अब हर तरह की हिंसा से आजादी और शांति चाहते हैं.
इस पदयात्रा में कांकेर जिले की अंतागढ़ तहसील के एक गांव के रहने वाले धन सिंह पोटाई भी शामिल थे. उनकी उम्र 43 साल है. अभी वो और उनका परिवार नारायणपुर के शांतिनगर में रहता है.

धन सिंह के दोस्त शान्तु उपेंडी को नक्सलियों ने पुलिस का मुखबिर बताकर पकड़ लिया था. शान्तु को माओवादियों ने जमकर मार-पीटा. इस पर अपनी जान बचाने के लिए उन्होंने धन सिंह पोटाई का नाम ले लिया. यहीं से उनके मुसीबतों की शुरूआत हुई.
माओवादियों ने धन सिंह को ढूंढना शुरू किया. इस पर वो अपने गांव से फरार हो गए. माओवादियों ने जन अदालत में इनके परिवार को बुलाकर धमकी दी और धन सिंह पोटाई के आत्मसमर्पण के लिए 8 दिन का समय दिया. उसके बाद से ही उन्हें अपना घर-जमीन छोड़कर नारायणपुर में रहना पड़ रहा है. धन सिंह चाहते हैं कि शांति हो तो अपने गांव लौटकर फिर से खेती बाड़ी शुरू करें.