गोरखपुर के प्राइवेट डॉक्टरों के पास इलाज के लिए आने वाले मरीजों और उनके तिमारदारों को किस तरह की परेशानियां उठानी पड़ती हैं, उसे जानने के लिए पढ़िए यह ब्लॉग.
मैं बुधवार को गोरखपुर के एक डॉक्टर दिलीप मणि त्रिपाठी को दिखाने के लिए उनके क्लिनीक पर गया था. वो गुर्दे के मशहूर डॉक्टर हैं. दरअसल गोरखपुर में किसी डॉक्टर को दिखाने के लिए पहले उनसे अप्वाइंटमेंट लेना पड़ता है, जिसे आम बोलचाल में नंबर लगवाना कहते हैं. मैं भी नंबर लगवाने ही गया था. जब मैं काउंटर पर पहुंचा तो वहां एक दंपति पहले से ही नंबर लगवाने की जद्दोजहद में थे. नंबर लगाने वाले कर्मचारी का कहना था कि सामान्य नंबर फुल हो चुका है, इमरजेंसी वाला नंबर ही मिल पाएगा. उसकी फीस 1000 रुपये है.

एक हजार रुपये की फीस सुनकर वह दंपति थोड़ा हिचकी. उन्होंने कहा कि उन्हें सामान्य फीस पर ही दिखाना है. इस पर कर्मचारी ने कहा कि आज नहीं हो पाएगा और अगले दिन सुबह 7 बजे आइए तो नंबर लगेगा. यह सुनकर उस दंपति ने कर्मचारी से प्रार्थना की कि आज का ही नंबर दे दी दीजिए. लेकिन कर्मचारी पर कोई असर नहीं हुआ.
परेशानी की शुरुआत
मेरा नंबर आया तो कर्मचारी ने मुझसे भी यही बात कही. मैंने भी उस कर्मचारी से मिन्नत की कि वह आज का ही नंबर दे दे. लेकिन कर्मचारी टस से मस नहीं हुआ. वह अपनी बात पर अड़ा रहा. लेकिन 1000 हजार रुपये देने पर इमरजेंसी का नंबर देने को तैयार था.
मैं उसे 1000 रुपये देने को तैयार नहीं था, क्योंकि मेरे साथ कोई इमरजेंसी जैसी बात नहीं थी. और वापस लौट आया. उस डॉक्टर को दिखाए बिना मैं दूसरी बार लौट रहा था. इससे पहले शनिवार को भी इसी तरह की परिस्थितियों में मैं वापस लौट आया था.
दरअसल गोरखपुर में इस तरह की स्थिति का सामना लोगों को रोज ही करना पड़ता है. गोरखपुर में पूर्वांचल के आसपास के जिलों के साथ-साथ पड़ोसी राज्य बिहार और पड़ोसी देश नेपाल की मरीज भी इलाज के लिए आते हैं. ऐसे में गोरखपुर डॉक्टरों और इलाज का हब बन गया है.
आस-पास के जिलों, बिहार और नेपाल की तरफ से आने वाली गाड़ियों में बड़ी संख्या में मरीज आते हैं. ये मरीज गोरखपुर में कुकुरमुत्ते की तरह फैले अस्पतालों, क्लिनिकों, नर्सिंग होमों आदि में इलाज कराते हैं.

गोरखपुर में बहुत से डॉक्टर ऐसे हैं, जिनके यहां एकदम सुबह ही नंबर लगता है. ऐसे में कई बार तो लोग नंबर पाने की उम्मीद में आधी रात के बाद ही चले आते हैं और पूरी रात सड़क पर बिताते हैं. गोरखपुर शहर के लोगों के लिए तो यह संभव है कि वो आएं और अपना नंबर लगवा के चले जाएं. लेकिन बाहर से आने वाले लोगों के लिए यह व्यवहारिक नहीं है.
बुजुर्ग की व्यथा
5-6 साल पहले की बात है. मुझे अपनी मां को डॉक्टर अनिल मेहरोत्रा को दिखाना था. अपनी मां के साथ 10 बजे मैं उनकी क्लीनिक पर पहुंचा. वहां पता चला कि नंबर फुल हो चुका है. अगले दिन 6 बजे सुबह आकर नंबर लगवाइए. मैंने थोड़ी बातचीत करके नंबर लगवाने की कोशिश की. लेकिन सफलता नहीं मिली.
अगले दिन सुबह 5 बजे क्लीनिक पर पहुंचा तो देखा कि पहले से ही एक लंबी लाइन लगी हुई है. लोगों से बातचीत में पता चला कि कुछ लोग तो आधी रात से ही आए हुए हैं और कुछ लोग तो नंबर के लिए शाम से ही डेरा जमाए हुए हैं. यानी की नंबर के लिए उन्होंने पूरी रात वहां सड़क पर गुजारी थी. खैर मैं अपना नंबर लगवाके चला गया.
दोपहर बाद मैं अपनी मां को दिखाने पहुंचा. जब डॉक्टर को दिखाकर वापस लौटा तो एक बुजुर्ग महिला मुझे रोते हुए मिली. उन्होंने बताया कि वो चौथी बार बिना डॉक्टर को दिखाए वापस लौट रही हैं. उन्होंने बताया कि वो बिहार के छपरा से आई हैं. उनके घर में कोई पुरुष सदस्य़ नहीं हैं. ऐसे में वो अपने गांव के ही किसी व्यक्ति के साथ आती हैं. लेकिन नंबर न मिल पाने की वजह से उन्हें लौट जाना पड़ता है. आने-जाने पर पैसा अगल से खर्च होता है. जब मेरी उनसे मुलाकात हुई थी, तो वो चौथी बार बिना डॉक्टर को दिखाए खाली हाथ लौट रही थीं. पांचवीं बार क्या हुआ, इसकी जानकारी मुझे नहीं है.

इस साल जुलाई में मेरे एक करीबी रिश्तेदार को गोरखपुर के सेवा अस्पताल में भर्ती कराया गया. यह डॉक्टर आरएस गोयल का अस्पताल है. वह ऐसा समय था, जब अधिकांश अस्पताल मरीजों को भर्ती करने से बच रहे थे. किसी तरह उस नर्सिंग होम ने उन्हें भर्ती किया. इसलिए हम सब डॉक्टर साहब के एहसानमंद थे. मेरे रिश्तेदार को पहले दिन से ही आईसीयू में रखा गया था. आईसीयू ऐसा कि उसका मॉनिटर काम नहीं करता था. बीपी, फीवर, पल्स रेट आदि की रीडिंग मैनुअल की करनी पड़ती थी. लेकिन वह मॉनिटर हमेशा शरीर से जुड़ा रहता था. उस आईसीयू के शौचालय में दूसरे मरीज शौच के लिए आते थे. साफ-सफाई को बुरा हाल था. लेकिन आईसीयू का पूरा पैसा लिया गया.
डॉक्टरों का मायालोक
यह हालत है गोरखपुर के डॉक्टरों की. ऐसा नहीं है कि गोरखपुर में केवल ऐसे ही डॉक्टर हैं. निश्चित तौर पर कुछ अच्छे डॉक्टर भी होंगे. लेकिन उनकी संख्या थोड़ी कम है.
यह तो हुआ गोरखपुर के डॉक्टरों का एक पहलू. डॉक्टरों का एक पहलू और भी है. वह है दवाओं के कारोबार का. कुछ डॉक्टर तो ऐसे हैं, जिनकी लिखि दवाएं केवल उनके ही दवाखाने पर मिलती हैं. कहीं और नहीं.
गोरखपुर में ऐेसे ही चर्म रोग विशेषज्ञ हैं डॉक्टर नरेश नागरथ. वो अपने नाम से ही दवाएं बनवाते हैं. उनकी लिखी दवा कहीं और नहीं मिलेगी. एक बार उनकी पर्ची लेकर मैं नोएडा के एक मेडिकल स्टोर पर गया. वहां उनकी पर्ची देखकर केमस्टी चकरा गया. उसने पर्ची पर दिए नंबर पर फोनकर डॉक्टर से बातचीत की. फिर डॉक्टर ने उन दवाओं के बारे में बताया. उससे साफ हुआ कि सभी सामान्य दवाएं हैं और किसी भी मेडिकल स्टोर पर मिल सकती हैं. लेकिन डॉक्टर साहब ने दवा कंपनियों से कहकर अपने नाम से दवाएं बनवाई थीं. और उस ब्रांड नेम से दवाएं केवल उनके क्लीनिक में ही मिलती हैं.

तो यह है गोरखपुर के डॉक्टरों के तंत्र का एक पहुलू. इसके और भी पहलू हैं, जिन पर फिर कभी बात की जाएगी. कभी विस्तार से बताने की कोशिश करुंगा कि किस तरह से गरीब डॉक्टर, दवा कंपनियों, नर्सिंग होमों, पैथालॉजी के जाल में फंसकर पिस रहा है. लेकिन उसकी सुनने वाला कोई नहीं है.