बीजापुर हमला : क्या नक्सलियों के जाल में फंस गए थे सुरक्षा बलों के जवान
बीजापुर में 3 अप्रैल को हुए हमले में सुरक्षा बलों के 22 जवान मारे गए थे और एक जवान को माओवादियों ने अगवा कर लिया था. क्या यह हमला सुरक्षा बलों की रणनीतिक चूक की वजह से हुआ यह हमला.
3 अप्रैल की दोपहर बाद खबर आई की छत्तीसगढ़ के बीजापुर में सुरक्षा बलों पर माओवादियों ने हमला कर दिया है. इसमें 5 जवान शहीद हुए हैं. कुछ माओवादियों के भी मारे जाने की खबर थी. हमले के बाद से सुरक्षा बलों के 21 जवान लापता हैं. सुरक्षा बलों ने रविवार को मुठभेड़ वाली इलाके में तलाशी अभियान चलाया. इस दौरान सुरक्षा बलों के 17 और जवानों के शव मिले और एक जवान लापता पाया गया. सरकार ने कहा कि इस हमले में 22 जवान मारे गए हैं और एक जवान लापता है. नक्सलियों ने अपने 4 साथियों के मारे जाने की बात कही है.

बताया गया कि सुरक्षा बलों के करीब 2000 हजार जवान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) की बटालियन नंबर-1 के कमांडर माड़वी हिड़मा को पकड़ने के लिए जंगलों में गए थे. सुरक्षा बलों के पास इस बात की सूचना थी कि हिड़मा और उनके साथी वहां मौजूद हैं.
माओवादियों का ट्रैप
बताया जा रहा है कि माड़वी हिड़मा ने खुद ही तर्रेम के आसपास के जंगल में अपने होने की खबर फैलाई थी. उसको पकड़ने के लिए सुरक्षाबलों के 2000 से अधिक जवान निकल पड़े थे. वो मिला तो नहीं. लेकिन जवान माओवादियों की जाल में फंस गए.
पूर्व आईपीएस प्रकाश सिंह उत्तर प्रदेश पुलिस, सीमा सुरक्षा बल और असम पुलिस के प्रमुख रह चुके हैं. पुलिस सुधारों के प्रबल समर्थक प्रकाश सिंह को नक्सल मामले का भी विशेषज्ञ माना जाता है. बीजापुर मुठभेड़ को लेकर 'एशियाविल हिंदी' ने उनसे बात की. उन्होंने, ''यह घटना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. यह हर साल होता है और वो हर साल हमले करते हैं. पिछले महीने ही उन्होंने नायारणपुर में 5 जवानों की हत्या की थी. लेकिन आपने उससे सबक नहीं लिया था.''
वो कहते हैं कि जंगलों में गए संयुक्त सुरक्षा बलों के जवान काफी आक्रामक थे. करीब 2 हजार जवान हिडमा को मारने गए थे. लेकिन ऐसा लगता है कि इस अभियान की ऑपरेशनल प्लानिंग ठीक से नहीं की गई थी.

प्रकाश सिंह कहते हैं कि ऐसा लगता है कि 2000 जवानों की भीड़ जमा की गई और सब कुछ कंपनी कमांडरों पर छोड़ दिया गया. उनसे कहा गया कि आप जैसा चाहें, वैसा करें. इसका परिणाम यह हुआ कि 2000 जवान होने के बाद भी आप पिट गए. अब कहा जा रहा है कि जवान वहां घिर गए थे.
छत्तीसगढ़ पुलिस की भूमिका
वो सवाल उठाते हैं कि मुठभेड़ के बाद सीआरपीएफ और छत्तीसगढ़ पुलिस के महानिदेशक कह रहे हैं कि उनके पास खुफिया सूचना थी. लेकिन अगर सूचना थी तो आप घिर कैसे गए. प्रकाश सिंह कहते हैं कि यह घटना प्लानिंग के स्तर पर हुई बहुत बड़ी चूक का परिणाम है. उन्होंने कहा कि अगर खुफिया सूचना दी थी तो उसके मुताबिक ठीक से प्लानिंग क्यों नहीं की गई. इसे वो छत्तीसगढ़ पुलिस के नेतृत्व की कमी मानते हैं. वो कहते हैं कि छत्तीसगढ़ पुलिस का नेतृत्व बहुत अक्षम है.
छत्तीसगढ़ में पिछले कई दशक से जारी नक्सल समस्या के समाधान के सवाल पर प्रकाश सिंह कहते हैं कि इसे खत्म करने की जरूरत है. वो कहते हैं कि इसके लिए जरूरी है कि दोनों पक्ष यह समझें कि शांति वार्ता के अलावा कोई और रास्ता नहीं है. वो कहते हैं कि नक्सली अगर अगले 100 साल तक भी लड़ें तो वो क्रांति नहीं ला सकते हैं. इसी तरह से सरकार अगले 100 साल तक नक्सलियों के खिलाफ अभियान चलाकर उन्हें खत्म नहीं कर पाएगी.
प्रकाश सिंह कहते हैं कि नक्सल समस्या केवल लॉ एंड आर्डर की समस्या नहीं है. इसकी जड़ें गरीबी में हैं, शोषण में हैं और असमानता में हैं. आप आदिवासियों को उनकी ही जमीन से बेदखल कर रहे हैं और उनके जंगल का अधिकार छीन रहे हैं. इससे इस समस्या का समाधान नहीं होने वाला. वो कहते हैं कि कोई भी सरकार समस्या की गहराई में नहीं जाती और चाहती है कि केवल लड़ाई से ही नक्सलियों को हरा देगी. वो कहते हैं कि लड़कर आप हावी तो हो सकते हैं. लेकिन समस्या की जड़ आप नहीं खत्म कर पाएंगे.

शांति वार्ता की जरूरत
बीजापुर हमले के सवाल पर शुभ्रांशु कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में यह पिछले कई दशक से चल रहा है. माओवादी कुछ जवानों की हत्या करते हैं. इसके जबाव में सरकार कुछ माओवादियों को मारती है. यह क्रम चलता रहता है. इसमें गरीब मारे जा रहे हैं, चाहें वो माओवादी हों या सुरक्षा बलों के जवान. इस लड़ाई में कोई भी पक्ष जीतता नजर नहीं आ रहा है. वो कहते हैं कि इसे कहीं न कहीं तो रुकना होगा. यह बढ़िया मौका है, क्योंकि माओवादियों ने भी वार्ता की शर्तें रखी हैं.
शुभ्रांशु कहते हैं कि दोनों पक्षों को लचीला रुख अपनाते हुए बातचीत के लिए आगे आना चाहिए. उन्हें वार्ता की मेज पर आना चाहिए. बातचीत करनी चाहिए. इससे समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है. वो कहते हैं कि भारत दुनिया का एकमात्र देश है, जहां माओवादी की समस्या है और वार्ता प्रक्रिया नहीं चल रही है, दुनिया के दूसरे देशों में यह खत्म हो चुकी है. फिलीपीन में यह समस्या तो है. लेकिन वहां वार्ता प्रक्रिया भी चल रही है.
शुभ्रांशु कहते हैं कि पर्चे में माओवादियों ने अपने जिस नेता की रिहाई की शर्त रखी है. हमने उनसे जेल में मुलाकात की थी. उन्होंने दो बातें कहीं, पहली यह कि जनता शांति चाहती है और दूसरी यह कि हम क्रांति का उद्देश्य तो नहीं छोड़ सकते. लेकिन हिंसा का रास्ता छोड़ सकते हैं. शुभ्रांशु कहते हैं कि माओवादी पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य रहे कोबाड गांधी भी अब गोलपोस्ट बदलने की बात कर रहे हैं. वो अब समानता की जगह हैप्पीनेस की बात कर रहे हैं.

गणेश मिश्र बीजापुर में रहकर कई सालों से पत्रकारिता कर रहे हैं. वो वहां के हालात पर करीबी नजर बनाए रखते हैं. वो कहते हैं कि अभी नक्सलियों का टीसीओसी चल रहा है. इस दौरान वो बड़े हमलों को अंजाम देते हैं, चाहें वो रानीबोंदली की घटना हो या चिंतलनार की घटना. सभी टीसीओसी में ही हुई हैं. इसमें हताहतों की संख्या भी अधिक होती है.
स्थानीय पुलिसकर्मियों की भूमिका
गणेश कहते हैं कि बीजापुर की घटना सुरक्षा बलों या पुलिस की विफलता नहीं है, क्योंकि उनके पास खुफिया सूचना थी. उसी के हिसाब से बड़ी संख्या में जवानों को वहां भेजा गया था. लेकिन वापसी में वो माओवादियों के जाल में फंस गए. माओवादियों ने उनके घेर कर पहाड़ी के ऊपर से हमला कर दिया. नक्सलवादियों ने पहले तो जवानों के सारे गोला-बारूद खत्म करवा दिए और जवान जब खाली हाथ वापस लौट रहे थे तो उन पर हमला कर दिया.
गणेश भी प्रकाश सिंह जैसी ही बात करते हैं. वो कहते हैं कि हमले या अभियान की जो रणनीति बनाते हैं, वो खुद अभियान का हिस्सा नहीं होते हैं. अभियान पर जवानों को भेजा जाता है. लेकिन जरूरत इस बात की है कि रणनीति बनाने के स्तर पर भी जवानों की राय ली जाए. वो कहते हैं कि जवान अभियान में जब जाते हैं तो उनके पास एक नक्शा होता है और जीपीएस होता है. उन्हें जंगल और उसके रास्तों की कोई जानकारी नहीं होती है. यह एक बहुत बड़ी कमी है. यह गलती बार-बार हो रही है.
गायब होता विकास
वो छत्तीसगढ़ में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों और स्थानीय युवाओं को भर्ती कर बनाए गए डिस्ट्रीक रिजर्व ग्रुप (डीआरजी) को अब इस तरह के अभियानों की जिम्मेदारी देने की मांग करते हैं. वो कहते हैं कि सीआरपीएफ मैदान में होने वाले ऑपरेशन के लिए बनी है, जंगलों में अभियान चलाने के लिए नहीं. वो कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि बस्तर में सीआरपीएफ ने विकास कार्यों में काफी मदद की है. लेकिन उसे जंगल की भौगोलिक स्थिति की कोई जानकारी नहीं है. वो केवल जीपीएस और नक्शे की मदद से आगे बढ़ते हैं.

माओवाद प्रभावित इलाकों में विकास के सवाल पर गणेश मिश्र कहते हैं कि सड़कें तो बन रही हैं. उसी की वजह से यह सब हो भी रहा है. वो कहते हैं कि जिस इलाके में यह मुठभेड़ हुई है, वहां बासागुड़ा से जगरगुंडा और पामेड़ से बासागुड़ा तक बन रही है. इन सड़कों से माओवादी काफी परेशान हैं. ये दोनों सड़कें माओवादियों की राजधानी से होकर गुजरेंगी. इससे उन्हें बहुत नुकसान होगा. इसलिए वो नहीं चाहते हैं कि ये सड़के बनें.
गणेश मिश्र कहते हैं कि माओवाद की समस्या के समाधान के लिए यहां रहना होगा और नक्सलियों की ही तरह सोचना होगा. लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही है. वो कहते हैं कि केवल लड़ाई से नक्सलवाद खत्म नहीं होगा.