CITU: संगठन बनाने और विरोध जताने का अधिकार छीन रही सरकार?
साल 2015 के बाद कोई बड़ा भारतीय श्रम संगठन संम्मेलन नहीं हुआ है. क्या सरकार वाकई 'ईज़ एट बिजिनेज़' के लिए कर्मचारियों और मजदूरों के अधिकारों को खत्म करना चाहती है? अगर नहीं तो सरकार की तरफ से विश्वास बहाली की कोई ईमानदार कोशिश होती क्यों नहीं दिखती है?
आज देश के दस बड़े मजदूर संगठनों की देशव्यापी महाहड़ताल है. ऐसा नहीं है कि अचानक से इन मजदूर संगठनों को सूझा कि चलो सब ओर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, हम भी कर लेते हैं. श्रम कानूनों में बदलाव, सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण, न्यूनतम आम जैसे कई मुद्दे हैं जिन्हें लेकर पिछले साल भी मजदूर संगठनों ने हड़ताल की थी और सरकार को अपनी मांगों पर काम करने के लिए कुछ समय दिया था. इसके बाद अभी दो जनवरी 2020 को ही सेंटर फॉर इंडियन इंडियन ट्रेड यूनियन, सीटू के प्रतिनिधियों की श्रम मंत्रालय के साथ बैठक हुई थी और जब वहां भी कोई बात नहीं बन पाई तो फिर अब देश भर में हड़ताल का आह्ववान किया गया है.
हमने सीटू की राष्ट्रीय अध्यक्ष हेमलता से बात की. उन्होंने कहा, मजदूर संगठनों ने लंबे संघर्ष के बाद अपने अधिकार प्राप्त किए हैं, और सरकार जो अब पुराने श्रम कानूनों को खत्म कर "4 लेबर कोड" लाने जा रही है. इससे जो नियम बदलेंगे उससे मजदूरों को संगठन बनाने का अधिकार नहीं रहेगा. श्रमिक संगठनों को हड़ताल का अधिकार नहीं रहेगा. यानि आप हमारी आवाज़ छीन लेना चाहते हैं. ये नियम श्रमजीवी पत्रकारों पर भी लागू होंगे.

यह सरकार अपने को राष्ट्रवादी कहती है, लेकिन रेलवे, एयरलाइन से लेकर जितने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हैं, उन्हें विदेशी कंपनियों को बेचा जा रहा है, उनका निजीकरण किया जा रहा है. जितने भी असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं, कंस्ट्रक्शन मजदूर हैं और बीडी मजदूर हैं उनके अधिकार और उन्हें मिलने वाले फायदों को खत्म करने की कोशिश हो रही है. सरकार ने लगभग 10 लाख नौकरियां खत्म कर दी हैं.
मजदूर संगठनों की मांग है कि न्यूनतम वेतन सातवें वेतन आयोग के न्यूनतम वेतन के बराबर रहे जो उस समय सरकार ने 20 हजार रु माना था. हम श्रमिकों के लिए न्यूनतम पेंशन की मांग करते हैं. पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम को सुधारने की मांग करते हैं.
इसके साथ ही उन्होंने कहा कि हमारी मांग है कि ठेके पर कर्मचारियों को रखने की परंपरा खत्म हो, पहले थर्ड पार्टी द्वारा कांट्रेक्ट पर जॉब्स दी जाती थीं, अब सीधे तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र में कांट्रेक्ट पर लोगों को रखने की तैयारी हो रही है. इतने दिनों से जो CAA और NRC को लेकर विरोध चल रहा है और यूनिवर्सिटीज़ में छात्रों के साथ मारपीट हो रही है, आज का विरोध प्रदर्शन उसके विरोध में भी है.
देशभर से मिल रहा समर्थन!

केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ आज हो रही महाहड़ताल को किसान संगठनों, ट्रांसपोर्ट संगठनों, युवाओं और बैंक कर्मचारियों का भी समर्थन प्राप्त है. इस राष्ट्रव्यापी हड़ताल में 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के सदस्यों के साथ विभिन्न क्षेत्रीय महासंघ भी हिस्सा ले रहे हैं. देशव्यापी हड़ताल में सीटू, एटक, इंटक, एआईसीसीटीयू, बैंक यूनियन- अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ (AIBEA), ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन (AIBOA), बैंक कर्मचारी फेडरेशन ऑफ इंडिया (BEFI), इंडियन नेशनल बैंक एम्पलाइज फेडरेशन (INBEF), भारतीय राष्ट्रीय बैंक अधिकारी कांग्रेस (INBOC) और बैंक कर्मचारी सेना महासंघ (BKSM) शामिल हैं.
यह संगठन महंगाई रेलवे, रक्षा, कोयला समेत अन्य क्षेत्रों में 100 प्रतिशत एफडीआई और 44 श्रम कानूनों को संहिताबद्ध करने (श्रम संहिता) के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. विरोध प्रदर्शन कर रही ट्रेड यूनियन्स की तरफ से जो मांगे रखी गईं हैं उनमें पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम, बेरोजगारी, महंगाई पर काबू पाने के लिए नीति बनाना, मजदूरों की तन्ख्वाह बढ़ाना, मजदूरों की न्यूनतम तन्ख्वाह 21 हजार रुपये प्रति माह करना, सोशल हेल्थ सर्विस में मजदूरों को शामिल करना, मजदूरों को मिड डे मील की सुविधा देना, 6000 रुपये की न्यूनतम पेंशन की सुविधा होना और पब्लिक सेक्टर बैंक के मर्जर का विरोध भी शामिल हैं.
देशव्यापी बंद में हो क्या रहा है?
सरकार ने आज हो रही हड़ताल में शामिल न होने की चेतावनी दी थी. कहा गया था कि कोई भी सरकारी कर्मचारी इसमें शामिल हुआ तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. लेकिन इसके बाद भी पुडुचेरी, तमिलनाडु, केरल और बंगाल से पूर्ण बंद की खबरें मिल रही है. महाराष्ट्र में उद्धव सरकार में पीडब्ल्यूडी मंत्री अशोक चव्हाण ने केंद्र सरकार को मजदूर विरोधी सरकार बताते हुए राज्य सरकार की तरफ से भारत बंद का समर्थन किया.
मुंबई में भारत पेट्रेलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड के कर्मचारी भी भारत बंद में शामिल हुए. पंजाब में भारत बंद के दौरान अमृतसर में रेलवे ट्रैक पर प्रदर्शन हुए लेकिन भारत बंद का सबसे ज्यादा असर बंगाल में देखा गया. यहां प्रदर्शनकारियों ने हावड़ा और नॉर्थ 24 परगना में रेलवे ट्रैक ब्लॉक किया. इससे करीब 42 ट्रेनों को रद्द करना पड़ा. वहीं, कूचविहार में प्रदर्शनकारियों ने एक बस में जमकर तोड़फोड़ की. पश्चिम बंगाल में भारत बंद का सबसे ज्यादा असर देखा जा रहा है.
मुंबई में भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड के कर्मचारियों ने भारत बंद के तहत केंद्र सरकार की नीतियों का विरोध किया. कई बैंकों के विलय के बाद कई बैंकिंग यूनियन भी खुलकर सरकार के विरोध में आ गईं हैं.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी भारत बंद का समर्थन किया है. राहुल ने ट्वीट कर भारत बंद में शामिल होने वाले लोगों को सलाम किया, उन्होंने लिखा कि , 'मोदी-शाह सरकार जन विरोधी और मजदूर नीतियों की विरोधी है. इस सरकार ने बेरोजगारी की स्थिति पैदा की है. PSUs को कमजोर किया है.'
The Modi-Shah Govt’s anti people, anti labour policies have created catastrophic unemployment & are weakening our PSUs to justify their sale to Modi’s crony capitalist friends.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) January 8, 2020
Today, over 25 crore ????????workers have called for #BharatBandh2020 in protest.
I salute them.
कामकाजी वर्ग के खिलाफ़ हैं मोदी सरकार की नीतियां?
ट्रेड यूनियन्स का कहना है कि मोदी सरकार की नीतियां कामकाजी वर्ग के खिलाफ हैं. आज हड़ताल कर रही यूनियन्स का कहना है कि करीब 25 करोड़ लोगों का उन्हें समर्थन प्राप्त है.
निवेशकों को खुश करने के लिए मोदी सरकार ने 44 श्रम कानूनों को मर्ज कर 4 श्रेणियों का अलग कानून बनाने जा रही है. इसमें भत्तों, सामाजिक सुरक्षा, इंडस्ट्रियस सुरक्षा और वेलफेयर और इंडस्ट्रियल रिलेशन्स के नियम बदले जाएंगे. संसद के दोनों सदनों से इसे मंजूरी मिल चुकी है और कानून बनने के लिए बस राष्ट्रपति की मंजूरी बाकी है.
फिलहाल हो रही इस हड़ताल में RSS के समर्थन वाली ट्रेड यूनियन बीएमएस राजनैतिक कारणों से इसमें शामिल नहीं है, लेकिन भीतरी खबरों के अनुसार बीएमएस भी सरकार द्वारा मजदूरों के कानून बदले जाने से कुछ खास खुश नहीं है. नया कानून संगठित क्षेत्र और गैर संगठित क्षेत्र दोनों पर ही लागू होगा, और दोनों की सेवा शर्तें लगभग समान बनाने की कोशिश हो रही है.
लेकिन साल 2015 के बाद कोई बड़ा भारतीय श्रम संगठन संम्मेलन नहीं हुआ ही नहीं है. क्या जिनके बारे में फैसला लिया जाना है, उनके प्रतिनिधियों को अपनी बात रखने का पूरा मौका दिए बिना या श्रम संगठनों के सरकार के साथ सम्मेलन के बिना इतना बड़ा आमूलचूल बदलाव संभव है? और क्या सरकार वाकई ईज़ एट बिजिनेज़ के लिए कर्मचारियों और मजदूरों के अधिकारों को खत्म करना चाहती है? अगर नहीं तो सरकार की तरफ से विश्वास बहाली की कोई ईमानदार कोशिश होती क्यों नहीं दिखती है?