औरंगाबाद का नाम बदलने पर जारी है बहस, जानिए क्या है इतिहास
कांग्रेस पार्टी का कहना है कि यह मुद्दा गठबंधन सरकार के लिए प्राथमिकता का नहीं है. इस पर चर्चा की जा सकती है. लेकिन कांग्रेस पार्टी नाम बदलने की राजनीति के खिलाफ है जिससे समाज में दरार पैदा होने की संभावना है. हालांकि, कांग्रेस पार्टी ने यह भी स्पष्ट किया है कि उन्हें संभाजी महाराज से कोई आपत्ति नहीं है.
महाराष्ट्र में नाम बदलने की राजनीति गरमा गई है. औरंगाबाद (Aurangabad) जिले का नाम संभाजी नगर (Sambhaji Nagar) करने की मांग करने वाली शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी (NCP) के साथ सरकार में होने की वजह से बैकफुट पर है तो बीजेपी उस पर नाम बदलने का दबाव बना रही है.
बीजेपी का कहना है कि शिवसेना कई सालों से औरंगाबाद का नाम बदलने की मांग करती रही है. राज्य में अब शिवसेना सत्ता में है, लिहाज़ा उसे अब इस शहर का नाम संभाजीनगर कर यह मांग पूरी करनी चाहिए. दूसरी ओर कांग्रेस ने यह साफ कर दिया है कि वह शहर का नया नाम रखने के किसी भी कदम का पुरज़ोर विरोध करेगी. इस मामले पर गठबंधन सरकार चला रहीं कांग्रेस और शिवसेना में मतभेद है.
दरअसल सबसे ज्यादा चर्चित मराठा वीर छत्रपति शिवाजी के सबसे बड़े बेटे संभाजी अपने पिता की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य के दूसरे शासक थे. सिर्फ नौ साल के अपने शासनकाल में अपने शौर्य और देशभक्ति के कारण हमेशा के लिए यादगार हो गए संभाजी की कहानी इतिहास में कीर्तिगाथा के रूप में दर्ज है. मुगलों से आखिरी युद्ध जीतने के बावजूद मराठा साम्राज्य के इस बेटे का अंत हुआ था और नाटकीय रूप से. धर्म परिवर्तन नहीं बल्कि मौत चुनने वाले संभाजी की कहानी आज भी चाव से कही-सुनी जाती है.

मुगलों की सेनाओं से लड़कर अपने साहस का लोहा मनवाने वाले संभाजी को अपने आखिरी दिनों में राजपाठ के लिए सौतेले भाई से जूझना पड़ा था. आखिरी युद्ध जीतने के बाद भी मुगलों के हाथों दर्दनाक मौत पाने वाले संभाजी के नाम पर महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन शहर औरंगाबाद का नाम रखे जाने की चर्चा ज़ोरों पर है.
वहीं एक वक्त में औरंगाबाद दक्कन में सत्ता का केंद्र था. यह कई साम्राज्यों की राजधानी रह चुका है. जब निज़ाम ने अपने शासन की नींव रखी, तो औरंगाबाद को काफी अहमियत मिली. हालांकि निज़ाम की राजधानी तो हैदराबाद ही थी, लेकिन औरंगाबाद का सम्मान उप-राजधानी के तौर पर बरकरार रहा. क्योंकि निज़ाम के शासन में यह उनके राज्य की सरहद पर मौजूद सबसे बड़ा और अहम शहर था, इसलिए इसका दर्जा भी ख़ास था.

मुगल बनाम मराठा और संभाजी
वर्तमान समय में मध्य प्रदेश में जो बुरहानपुर शहर है, वहां 17वीं सदी में मुगलों का संपन्न शहर था. संभाजी ने पूरी योजना बनाकर बुरहानपुर पर हमला किया था. दक्षिण को कब्ज़ाने के औरंगज़ेब के मंसूबे की जानकारी के बाद संभाजी को पता था कि बुरहानपुर को जीतने से मुगलों का एक बड़ा व्यापारिक केंद्र और अहम सैन्य गढ़ को ध्वस्त किया जा सकता था. इसी तरह, 1682 से लेकर 1688 ईसवी तक संभाजी के नेतृत्व में मराठा और औरंगज़ेब की मुगल सेनाएं आपस में कई बार भिड़ती रहीं.
एक तरफ मुगल थे, जो नाशिक और बगलाना जैसे मराठा किलों को फतह करना चाहते थे. नाशिक के पास रामसेज किले पर मुगलों ने कई महीनों तक हमले किए लेकिन नाकाम होकर उन्हें लौटना पड़ा. यह मराठाओं के नैतिक पराक्रम और जीत की कहानी बन गई. मुगलों से तो लड़ाई लगातार चल ही रही थी, लेकिन बीच-बीच में मराठा अन्य वंशों से भी लड़ते रहे. संभाजी के नेतृत्व में मराठाओं ने सिद्दी शासकों से युद्ध किया जो कोंकण के समुद्री तटों पर नियंत्रण चाहते थे. संभाजी ने उन्हें ज़ंजीरा किले तक ही रोकने में कामयाबी हासिल की थी. मराठा क्षेत्रों में तो संभाजी ने सिद्दियों को प्रवेश तक नहीं करने दिया था.
दूसरी तरफ, संभाजी की अगुवाई में ही मराठाओं ने 1683 में गोवा में पुर्तगालियों के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी. पुर्तगालियों को चूर होकर मुगलों से मदद लेना पड़ी तो मुगलों के पहुंचने के बाद जनवरी 1684 में संभाजी यहां से पीछे हटने पर मजबूर हुए थे. इसी तरह मैसूर पर भी 1681 में चढ़ाई करने वाले संभाजी को वहां से भी पीछे हटना पड़ा था.
तमाम युद्धों में भरपूर चौंकाते मोड़ देख चुके संभाजी को अप्रैल 1680 में पिता शिवाजी की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य की बागडोर संभालनी थी. तभी, उनके 10 वर्षीय सौतेले भाई राजाराम ने साम्राज्य के लिए विवाद खड़ा किया. अस्ल में, राजाराम की मां यानी संभाजी की सौतेली मां सोयराबाई ने इस पूरे घटनाक्रम को रचा था, जो करीब 9 महीने का विवाद बन गया.
आखिरकार मराठा सेनापति हम्बीरराव मोहिते का पूरा समर्थन मिलने के बाद 1681 में संभाजी की ताजपोशी हुई और सोयराबाई व राजाराम को नज़रबंद कर दिया गया. इसके बाद मुगलों और अन्य वंशों से लोहा लेते हुए संभाजी के अगले करीब 7 साल गुज़रे. साल 1687 में महाबलेश्वर के पास वाई का युद्ध यादगार रहा.
मुगलों के खिलाफ इस अहम युद्ध में हालांकि मराठा जीते लेकिन मोहिते का मारा जाना मराठाओं की हिम्मत तोड़ने वाला नतीजा था. कई मराठा सैनिकों ने मोहिते के बाद संभाजी को अकेला छोड़ दिया था. अंजाम यह हुआ था कि जनवरी 1689 में संभाजी को मुगल सेना ने अपनी गिरफ्त में ले लिया. इसके बाद क्या हुआ, इसके बारे में कई तरह का इतिहास मिलता है, लेकिन तकरीबन सभी इस बात पर एकराय दिखते हैं कि संभाजी को सारे किले और खज़ाने मुगलों को सौंपने पर मजबूर किया गया और आखिरकार इस्लाम में धर्म परिवर्तन के लिए भी.
नाम बदलने की बहस जब-तब उठती रही
औरंगाबाद अक्सर स्थानीय राजनीति की वजह से सुर्खियों में रहा है. औरंगाबाद सिटी और औरंगाबाद ज़िले का नया नाम रखने पर बहस जब-तब उठ खड़ी होती है. अगर हम शहरी चुनाव क्षेत्र को देखें तो यह साफ हो जाता है कि क्यों राजनीतिक पार्टियां इसे इतनी अहमियत दे रही हैं. क्यों बार-बार इस शहर के नाम का मुद्दा सामने आ जाता है. हाल में औरंगाबाद शहर में 'लव औरंगाबाद' और 'सुपर संभाजीनगर' लिखे साइन-बोर्ड जगह-जगह देखने को मिले. इसने शहर के नाम को लेकर होने वाले विवाद को एक बार फिर हवा दी और इसमें कई राजनीतिक पार्टियां कूद पड़ीं.
दरअसल, औरंगाबाद में सबसे ज़्यादा हिन्दुओं की आबादी है, लेकिन मुस्लिम आबादी भी कम नहीं है. शायद यही वजह है कि राजनीतिक मकसद से इसका नाम बदलने का मुद्दा ज़ोर-शोर से उछाला जाता रहा है.
1988 में औरंगाबाद नगरपालिका के चुनाव में शिवसेना को 27 सीटों पर जीत हासिल हुई थीं. इसके बाद बाला साहेब ठाकरे ने सांस्कृतिक मण्डल ग्राउंड में एक विजय रैली को संबोधित किया. इसी रैली में उन्होंने ऐलान किया कि औरंगाबाद का नाम संभाजीनगर रखा जाएगा. इसके बाद शिवसेना कार्यकर्ता आज भी औरंगाबाद को संभाजीनगर ही कहते हैं. शिवसेना के मुख-पत्र में भी इसे संभाजीनगर ही लिखा जाता है. हर बार नगरपालिका चुनाव में औरंगाबाद का नाम बदलने का मामला उठता है और यह चुनावी मुद्दा बन जाता है.
दरअसल, 1995 में औरंगाबाद नगरपालिका की एक बैठक में औरंगाबाद को संभाजीनगर करने का प्रस्ताव पारित किया गया था. इसके बाद इसे राज्य सरकार के पास भेजा गया. 1995 में महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन की सरकार थी. उस वक़्त पूर्व सांसद चंद्रकात खैरे औरंगाबाद के अभिभावक मंत्री थे. विधानसभा के पूर्व स्पीकर हरिभाऊ बागड़े जालना ज़िले के अभिभावक मंत्री थे. उन्होंने कैबिनेट की बैठक में औरंगाबाद का नया नाम रखने का प्रस्ताव रखा था, जिसे मंजूर कर लिया गया.
चंद्रकांत खैरे ने बीबीसी मराठी से एक बातचीत में कहा था, "जब 1995 में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन की सरकार थी, तो औरंगाबाद का नाम संभाजीनगर करने के प्रस्ताव को कैबिनेट ने मंजूर कर लिया था. हमने इसका नाम संभाजीनगर कर दिया था. लेकिन किसी ने कोर्ट में अपील कर दी. हाई कोर्ट ने हमारे पक्ष में फैसला दिया. सुप्रीम कोर्ट ने भी हमारे पक्ष में फैसला दिया. लेकिन इस बीच हमारा गठबंधन चुनाव हार गया और औरंगाबाद को संभाजीनगर करने का मामला लटक गया."
चंद्रकांत खैरे से जब हमने पूछा कि औरंगाबाद शहर का नाम संभाजीनगर क्यों रखा जाए? तो उन्होंने कहा कि इसका नाम औरंगजेब जैसे 'तानाशाह' शासक के तौर पर नहीं रखा जाना चाहिए. उन्होंने कहा, "एक समय में इस शहर का नाम खडकी था. औरंगज़ेब ने इसका नाम बदलकर औरंगाबाद कर दिया. औरंगज़ेब ने संभाजी महाराज को सोनेरी महल में चार महीने तक कैद करके रखा था. उनके खिलाफ यहां मुकदमा चला. वह हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण हैं. इसलिए हम इसका नाम संभाजीनगर रखना चाहते हैं."
1996 में शिवसेना-बीजेपी कैबिनेट ने संभाजीनगर नाम को मंजूरी दे दी थी. लेकिन तब औरंगाबाद नगरपालिका के पार्षद मुश्ताक़ अहमद ने अदालतों में इस फैसले को चुनौती दी थी.
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